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________________ [ ७८] पद् द्रव्य निरुपण होता है। जब पदार्थ की व्यंजन पर्याय परिवर्तित होती है तब संस्थान भी परिवर्तित होता है या लत्थान-परिवर्तनले पर्याय-परिवर्तन हो जाता है । लस्थान को नियताकार होता है, कोई अनियताकार होता है। शंजा-मूल गाथा में 'संख्या' को पर्याय रूप प्रतिपादन किया है। तब संख्या में एक ले लेकर शागे की समस्त अनन्तानन्त पर्यन्त संख्याओं का समावेश हो जाता है। 'एक संपूया भी उला में अन्तर्गत है तब उसका गत्तं' पद देकर अलग क्यों निर्देश किया गया है ? यदि एकत्व का अलग निर्देश किया गया तो द्वित्व, नित्य नादि . का उल्लेख अलगे क्यों नहीं किया गया ? समाधान-गुणाकार या भागाकार करन स जिसमें क्रमशः वृद्धि और हानि होती है उसे संख्या माना गया है । एक से गुणाकार किया जाय तो संख्या की वृद्धि नहीं होती और भागाकार किया जाय तो हानि नहीं होती। अतएव एक को संख्या न मान कर संख्या का मूल माना गया है। यही भाशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'एगत्तं' और 'संस्खा' ये अलग-अलग पद दिये हैं। किसी भी संख्या के साथ दो-तीन श्रादि का गुणाकार-सागाकार करने से . वृद्धि हानि होता है इसलिए उन्हें संख्या में ही समाविष्ट किया गया है और इसी कारण उनका अलग उल्लेख नहीं किया है। प्रश्न-पृथक्त्व और विभाग का एक ही अर्थ है। इन दोनों का सूत्रकार ने लालग उल्लेख क्यों किया है ? . . ... उत्तर-यह पहले ही कहा जा चुका है कि वैशेषियों की प्रान्ति-निवारण के लिए गाथा है । वैशेषिक लोग पृथक्त्व और विभाग नामक दोनों गुणों को अलगअलग स्वीकार करते हैं और दोनों का अर्थ भी अलग-अलग मानते है, अतएव सूत्रकार ने भी उन्हें अलग-अलग कहा है। दोनों के अर्थ में वैशेषिक. यह भेद करते है-पहले मिले हुए दो पदार्थों के अलग-अलग हो जाने पर भेद-शान कराने का कारण भूत गुण विभाग कहलाता है और संयुक्त (मिले हुए ) पदार्थो में भी यह इससे भिन्न है' इस प्रकार का ज्ञान कराने वाला गुण पृथक्या कहलाता है। तात्पर्य यह है कि विभाग तो तभी होता है जब एक पदाथे दूसरे पदार्थ से अलग हो जाये, पर . पृथक्त्व संयुक्त रहते हुए भी विद्यमान रहता है। यही दोनों में अन्तर है। वैशेषिको । द्वारा स्वीकृत इस अन्तर को लक्ष्य करके सूत्रकार ने दोनों का पृथक् उल्लेख कर दिया . ___'लक्ष्यते थनेन-इति लक्षणम्' अर्थात् जिसले वस्तु का स्वरूप लखा जाय-जाना जाय उसे लक्षण कहते हैं । लक्षण दो प्रकार का होता है -(१) प्रात्मभूत शौर (२) अनात्मभूत । जो लक्षण लक्ष्य वस्तु में मिला हुआ होता है और उस वस्तु से डालवदा नहीं किया जा सकता, वह आत्मभूत लक्ष कहलाता है जैसे जीव का चेतना लक्षण । जीव ले चतना अलग नहीं हो सकती अतएव यह लक्षण आत्मभूत है। श्रनात्मभूत लक्षण उसे फहते हैं जो वस्तु से अलग हो सके, जसे दंडी पुरुप का
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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