SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय नित्य-अनित्य अवज्ञव्य है। इन सात भंगों में पहल के दो अंग मृल हैं और शेप इन्हीं दोनो ले निष्पन्न हुए हैं। जीव द्रव्यार्थिक नथ से नित्य है, क्योंकि जीव द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता । जीव पार्थिक नय स अनित्य है क्योंकि जीव की पर्याये प्रतिक्षण नष्ट होती रहती है। दोनों नयों की कमशः अपेक्षा से जीव नित्यानित्य है। दोनों की एक साथ विवक्षा से जीव किसी भी एक शब्द द्वारा नहीं कहा जा सकता अतः अवहाव्य है। द्रव्यार्थिक नय और एक साथ दोनों नयों कि अपेक्षा जीव नित्य अवलव्य है । पर्यायार्थिक नय और दोनों की एक साथ अपेक्षा हो तो जीव अनित्य प्रवक्तव्य है। दोनों की कम से और एक साथ अपक्षा से जीव नित्य-अनित्य-अवशव्य है। नित्यत्व धर्म को लेकर सात भंगों की योजना की गई है उसी प्रकार अस्तित्व, एकत्व, अलकत्व. श्रादि सभी धर्मों के संबंध में सात भंग योजित किये जा सकते हैं। जैनदर्शन में इसे 'सप्तरंगी' कहा गया है । अनन्त धर्मों की अनंत सप्तभंगिया हो सकती है। . नय वस्तुतः प्रमाण का एक अंश है। श्रुन ज्ञान के द्वारा ग्रहण की हुई अनन्त धर्मात्मक वस्तु में ने, अन्य धर्मों के प्रति उपेक्षा रखते हुए, किसी एक धर्म को मुख्य करके उसे ग्रहण करना नय कहलाता है। प्रमाण और नय-दोनों के द्वारा वस्तु के असली स्वरूप का ज्ञान होना है। अतएव जिज्ञासुओं को इनका स्वरूप अलीभांति समझ कर तत्त्व का निश्चय करना चाहिए विस्तार भय से यहां दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। • . सुत्रकार ले द्रव्य को गुणों का श्राश्रय बतलाया है। सो यह नहीं समझना चाहिए कि द्रव्य के अलग-अलग प्रदेश में अलग-अलग गुण हैं। द्रव्य के प्रत्येक प्रदेश में समस्त गुणों को सत्ता है अर्थात् पुद्गल द्रव्य के जिस प्रदेश में रूप है, उसी में रस आदि अनंत गुण हैं। इसी प्रकार जीव द्रव्य के जिस प्रदेश में ज्ञान गुण है उसी प्रदेश में शेष दर्शन अादि अनंत गुण भी है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य का प्रत्येक प्रदश अनंत-अनंत गुणों का आधार है। यहां 'गुरगाणं' यह बहु वचनान्त पद अनंतता का द्योतक है। इसी प्रकार अन्य बहुवचनान्त पदों की भी यथोचित व्यवस्था कर लेना चाहिए। वैशेषिक लोग इव्य और गुण को लर्वथा भिन्न मानकर दोनों में लमवाय संबंध स्वीकार करते हैं। किन्तु समवाय को उन्हों ने एक, व्यापक और नित्य माना है अतएक वह प्रतिनियत गुण का प्रतिनियत द्रव्य में ही संबंध नहीं कर सकता । अतः उनका कथन युक्ति शून्य है । वस्तुतः द्रव्य और गुण कथंचित् भिन्न और कथाचित् अभिन्न हैं । यह चर्चा ऊपर की जा चुकी हैं। शूल: गतं च पुहत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्खणं ॥१६॥ CU ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy