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________________ प्रथम अध्याय [ ४६ ] में हैं, पर उनके नाम एक सरीखे हैं । गोलाकार घातकी खंड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध इस प्रकार दो भाग हैं । दो पर्वतों के कारण यह विभाग होता है । यह पर्वत दक्षिण से उत्तर तक फैल हुए बाण के समान सरल हैं । प्रत्येक भाग में अर्थात् पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में एक-एक मेरु. सात-सात क्षेत्र और छह-छह पर्वत हैं । मेरु क्षेत्र और पर्वनों की जो संख्या घातकी खंड में है उतनी ही संख्या धे . पुष्कर द्वीप में है । इसमें भी दो मेरु श्रादि हैं । वह द्वीप भी बाणाकार पर्वतों से विभक्त होकर पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में स्थित है । इस प्रकार जोड़ करने से कुल पांच मेरु, तीस पर्वत और पैंतीस क्षेत्र हैं। पांच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु. पांच महाविदेहों के १०८ विजय, पांच भरत तथा पांच ऐरावत क्षेत्रों के दो सौ पंचावन आर्य देश हैं । अन्तद्वीप सिर्फ लवण समुद्र म हां होते हैं । उनकी संख्या ५६ है । लवण समुद्र में, जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र के वैताढ्य पवत की पूर्व और पश्चिम में दो-दो दाढ़ें निकली हुई हैं। प्रत्येक दाढ़ पर सात-सात अन्तद्वीप हैं । इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र में भी है । श्रतएव कुल ५६ अन्तर्द्धा लवण समुद्र में हैं । 1 ऊर्ध्वलोक में देवों का निवास है । समतल भूमि से ७६० योजन ऊपर से . लेकर ६०० योजन तक में तारे, सूर्य, चन्द्रमा श्रादि ज्योतिपी देव रहते हैं । मगर यह प्रदेश मध्य लोक में ही सम्मिलित है । इससे ऊपर वैमानिक कल्पोपपन्न देवों के सौधर्म श्रादि बारह स्वर्ग है । उनके ऊपर नौं ग्रैवेयक देवों के नव विमान हैं। यह विमान तीन-तीन ऊपर-नीचे तीन श्रेणियों में हैं। ग्रैवेयक के ऊपर विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध यह पांच अनुत्तर विमान हैं । सर्वार्थसिद्ध विमान के ऊपर ईपत् प्रागभार पृथ्वी अर्थात् सिद्ध भगवान् का क्षेत्र है । उसके बाद 'लोक का अन्त हो जाता है । 1 यह लोक जीवों से भरा हुआ है । पर त्रस जीव त्रस नाड़ी में ही होते हैं । लोक के आर-पार - ऊपर से नीचे तक, चौदह राज ऊँचे और एक राज चौड़े श्राकाश प्रदेश को सनाड़ी कहते हैं । इसमें त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीव रहते हैं । असनाड़ी के बाहर स्थावर - नाड़ी है । उसमें स्थावर जीव ही रहते हैं । · समस्त लोक के असंख्यात प्रदेश हैं । उसका विस्तार कितना है, सो कों द्वारा नहीं बताया जा सकता । तथापि भगवती सूत्र में उसका निरूपण इस प्रकार हैजम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्राइस योजन, तीन कोश, एक सौ अठ्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है । महान ऋद्धि वाले छह देव जम्बूद्वीप में मेरूपर्वतकी चूलिका को चारों और घेर कर खड़े रहें । फिर नीचे चार दिक् कुमारियां चार बलिपिंड को ग्रहण करके जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं मैं बाहर मुख रखकर खड़ी रहें और वे चारों एक साथ उस चलिपिण्ड को बाहरफैकें तो उन देवों में का एक देव उन चारों पिंडों को पृथ्वी पर गिरने से पहले शीघ्र · ही अधर ग्रहण करने में समर्थ है । इतनी शीघ्रतर गतिशले उन देवों में से एकदेव जल्दी-जल्दी पूर्व दीशा में जावे, एक दक्षिण में जाय, एक पश्चिम में जाय, एक उत्तर with A
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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