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________________ ( ११४ ) जैनतत्त्वादर्श. २ दर्शन ३ चारित्र ४ तप ५ यथा सूक्ष्मतः ॥४॥ जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप, या चारे आजीविकाने वास्तें करे ते ज्ञानादिकुशील याने चारे प्र तिसेवनाकुशील, तथा था तपस्वी बे इत्यादि पोतानी प्रशंसा श्रवण करी खुशी थाय ते पांचमा यथासूक्ष्म प्रतिसेवनाकुशील जाणवा. तथा जे ज्ञान, दर्शन, तप प्रमुखनो संज्वलन कषायना उदयश्री व्यापार करे, ते ज्ञान, दर्शन, चारित्रना कषाय कुशील जावा. जे कषायकुशील बे ते कषायने वश थईने शाप दीएडे. मनथी जे क्रोध प्रमुखनुं सेवन करे ते यथा सूक्ष्मकषायकुशील, अथवा कषायथी जे ज्ञान प्रमुखनी विराधना करे ते ज्ञानादि कुशील जाणवा. कोइ आचार्य, तप कुशीलना स्था मां लिंगकुशील कहे बे. या बे प्रकारना निर्बंथ पांचमा श्रारा पर्यंत रहेशे. जे कोई या तरेहना साधुने साधु अथवा गुरु न माने ते जीव मिथ्यादृष्टि, बहुल संसारी, जिनमतना उत्थापक बे. एवा मिथ्याहटिनी संगत पण करवी योग्य नथी. इतिश्री तपागष्ठीयमुनिश्री बुद्धि विजय शिष्यमुन्यानंद विजयात्माराम विरचित जैन तत्त्वादर्शनाषांतरे गुरुतत्त्व निर्णयनामा तृतीयः परिच्छेदः संपूर्णः ॥ ॥ श्रथ चतुर्थपरिछेदप्रारंभः ॥ या चोथा परिछेदमां कुगुरु तत्वनुं स्वरूप लखिये बियें. ॥ श्लोक ॥ सर्वा जिला षिणः सर्व, जोजिनः सपरिग्रहाः ॥ ब्रह्मचारिणो मिथ्यो, पदेशागुरवोमताः ॥ १ ॥ अर्थः- स्त्री, धन, धान्य, सुवर्ण, रुपाच्यादि सर्व धातु, तथा क्षेत्र, घर, हाट, हवेली प्रमुख सर्व स्थावर मिलकत तथा चतुष्पदादि अनेकप्रकारनां पशु, या सर्वनी अभिलाषा करवानो जेनो aara a ते सर्वा जिलाषी, तथा सर्व मद्यमांसादि बावीश अजक्ष्य, तथा बत्री अनंतकाय, तथा अन्य अनुचित श्राहारादि, या सर्वनुं जोजन करवानो जेनो खनाव बे ते सर्वजोजिनः, तथा पुत्र, कलत्र, पुत्री प्रमुख सहवर्तमान प्रवर्त्ते ते सपरिग्रही, अने तेज कारणची ब्रह्मचारी, जे ब्रह्मचारी, होय बे ते महादोषवान् होय बे तेथी ब्रह्मचारी एवो श्री श्लोकमां जूदो उपन्यास करेलो बे. वली गुरुपषानुं असाधारण
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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