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________________ तृतीय परिवेद. (१०१) उपनोग, सुगंध, लेपनप्रमुखथी शरीरनी पुष्टि श्ववी ते पण व्यर्थ डे. कदाचित् था शरीरने कोश् लाकडी प्रमुखथी मार मारे तो पण समता राखी सहन कर, जोश्ये. जे पुरुष अन्यत्वनावना जावे तेने शरीर, धन, पुत्रादिना वियोगथी दुःख शोक थतां नश्री. आ पांचमी अन्यत्व नावना कही. ६ श्रशुचि जावना कहिये डिये. जेम लूणनी खाणमा जे पदार्थ पडे बे ते खूण थर जायजे, तेम ा कायामां जे आहारप्रमुख पडेले ते मलरूप थर जाय , एवी श्रा काया अपवित्र , तथा रुधिर अने शुक्र (वीर्य) बनेना मेलापथी श्रा काया (गर्न) उत्पन्न थाय ने, जरा (र) विंटाएली होय , माता जे आहारप्रमुख ग्रहण करे तेना रसथीज था गर्न वृद्धि पामे , एवा था देहने कोण बुद्धिमान् पवित्र मानेडे ? तथा मिष्ट स्वाद, अने सुगंधमय मोदक, उध, दहिं प्रमुख षरस, श्तुरस, कमोद प्रमुख धान्य, घेबर प्रमुख मिष्टान्न, तथा श्रान प्रमुख फल जे खावामां आवे जे ते तत्काल मलरूप थर जाय , एवी था अशुचि कायाने, महामोहांध पुरुष पवित्र माने. तथा पाणीना सो घडाथी स्नान करीने तथा सुगंधमय पुष्प, कस्तूरि प्रमुख अव्यो लगावीने, उपरनी चामडी तो केटलो एक वखत मुग्ध जीव शुचि सुगंधमय करे बे, परंतु मध्य नागमा रहेलो विष्ठानो कोठो केम पवित्र करी शके तेम डे ? तथा अत्यंत श्रानंदनी वृद्धि करनारां अव्योथी मघमघायमान थक्ष रदेली दिशा, तथा चंदन, कस्तूरि, कपूर, अगर, कुंकुम प्रमुख वस्तु पण श्रा शरीरनो तेमनी साथे संबंध थाय बे, त्यारे अल्पकालमां उर्गंधरूप थर जाय , तो पठी विचारो के श्रा कायाने कोण बुद्धिमान् पवित्र माने ? ए प्रमाणेनी अशुचिरूपता था शरीरनी विचारीने बुद्धिमान् पुरुष था शरीरनी ममता न करे. आ बी अशुचिनावना कही. श्राश्रवनावना कहियें लिये. मन, वचन, श्रने कायाना योगथी झुंजा शुजकर्म जे जीव ग्रहण करे बे, तेनुं नाम श्राश्रव, जिनेश्वर नगवान् कहे . सर्व जीवो विषे मैत्री नावना, गुणाधिक जीवोमा प्रमोदनावना, अविनीत शिष्यादिमां मध्यस्थ जावना, श्रने कुःखी जीवोमां करुणाजा
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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