SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना. जाउँ वास्ते तो झुंज बोलवू, परंतु वेदांतमतना धुरंधर श्री माधवाचार्ये पोताना सर्वदर्शन संग्रह नामना ग्रंथमां जुदा जुदा शोल दर्शनना विचारो बतावेला, एकनुं बीजामां एम उत्तरोत्तर खंडन करेलुं बे, तेमां आईत (जैन) दर्शन संबंधी विचारो बतावतां जेजे बाबतोर्नु जेजे रूपे खं. डन करेलुं ते एवं तो विचित्र डे के, आ प्रसंगे हुं हिंमतथी लखी शकुं तुं के, तेवा महान् आचार्यने पण जैनदर्शन- यथार्थज्ञान न होतुं. सर्व दर्शनसंग्रहमा आईत दर्शननुं स्वरूप बताववामां ब अव्यसंबंधी तथा सप्तनंगीसंबंधी विचारो बताव्या . उ अव्यमा . “ धर्म अने अधर्म" जे प्रथमना बे अव्यो बे, तेनुं स्वरूप तदन असत्य ते स्थले बतावेलुं बे; जैनदर्शन- सत्यज्ञान जो तेमने होत तो ते बने पदार्थोनो जेवो तेमणे अर्थ कों ने तेवो करतज नहि; खोटो अर्थ करी असत्य खंडन कर्यु जे. खेर ! मात्र तेटलुंज नहि परंतु सप्तनंगीनी गहन शैली पण तेवा विछान् आचार्यने समजवामां आवी नथी, बता "नैकस्मिन्नसंचवात्" एम सूत्र लखी असत्य कल्पना बतावी . सप्तनंगीना असत्य खंडन- खंडन श्रीमद्विजयानंदसूरिजीए बहुज विस्तारथी करेलु जे जे थोडावखत पड़ी पाववामां आवशे, ते अवलोकन करवाथी वाचकवर्गने सिक शशे के जैनदर्शन अति गहन दर्शन बे, अने तेनुंज यथार्थ ज्ञान ते स. म्यग् ज्ञान . श्री माधवाचार्य जेवा महान् आचार्यपण जैनदर्शनना परम रहस्यथी अज्ञात हता, तो सामान्य विज्ञानो माटे तो झुंज बोलवू? आमारा लखाणनी साबिती माटे जीज्ञासुए जैनदर्शनना प्रवीण पुरुष पासे जैनदर्शन- यथार्थ ज्ञान नवतत्व प्रमुखनुं प्राप्त करी सर्व दर्शनसंग्रहमां वर्णवेला आईत दर्शनसंबंधी विचारो तथा तेनुं खंडन अवलोकन करवं, आर्यावर्तमां वसनारा तेमज बहारना विछानो मध्येनो मोटो नाग वेदांतदर्शनने सर्वोत्तम दर्शन माने बे, परंतु दिलगीरी मात्र ए बे के वेदांतनुं ज्ञान धरावनारा महाविद्वानो पण जैनदर्शन- यथार्थ ज्ञान प्राप्त करवा सारु तेना गहन ग्रंथोनो लेशमात्र अन्यास करता नथी. जैनदर्शन- यथार्थ ज्ञान पूर्वाचार्य श्रीमहरिजमसूरि तथा श्रीमद् हेमचंदाचार्य प्रमुखना रचेला अव्यानुयोग संबंधी ग्रंथोनुं सदगुरु समद अध्ययन करवायी थाय बे. संस्कृत नाषाना वेत्ताउँ, तर्कना नियमो लदमां
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy