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________________ क्षितीय परिजेद. (६३) मानथी जे साध्य बे, तेना शत्रुनूत बीजा साध्यने साधनारा अनुमानना अनावथी, तथा एम पण न केहे के ईश्वर, पृथ्वी, पर्वत, वृदादिना कर्ता नथी, कारण के मुक्त आत्मानी पेठे शरीर विनाना बे. आ,पालना तमारा अनुमाननो वैरी अनुमान ले ते ईश्वरने जगत्कर्त्ता सिक थवा देतुं नथी. कारण के तमे तो ईश्वरने शरीरविनाना सिझ करीने जगत्ना अकर्ता सिझ कर्या, परंतु अमे तो ईश्वर शरीरवाला मानेला बे ते कारणथी तमारं अनुमान असत्य जे. वली अमारो हेतु निरवद्य ने तथा ईश्वर एक बे. कारण के जो बहु ईश्वर मानियें तो तो एक कार्य करवामां ईश्वरोनी जूदी जूदी बुद्धि थर जाय अने तेउँने मना करनार तो कोश बे नहि तेथी कार्य केम उत्पन्न थाय ? को ईश्वर पोतानी - बाथी चार पगवालो मनुष्य रचे, वली बीजो ईश्वर ब पगवालो रची दे, अने त्रीजो बे पगवालो रचे, तो चोथो आठ पगवालो रचे, एवी रीतें सर्व वस्तु विलक्षण विलक्षण रचाय तो सर्व जगत् असमंजसरूप थर जाय. परंतु एम नहि तेथी ईश्वर एकज होवा जोश्ये. वली ईश्वर सर्वगत सर्वव्यापी डे, जो ईश्वर सर्वव्यापक न होय तो त्रण जुवनमा जे एक साथे उत्पन्न थनारां कार्य में ते सर्व एक कालमां कदी उत्पन्न नहि थाय.. जेम के कुंनारादि ज्यां हशे त्यांज कुंजादि कार्य करी शकशे. परंतु देशांतरमा कदी ते नहि करी शके. तेमज ईश्वर सर्वज्ञ , जो सर्वज्ञ न होय तो सर्व कार्योनां उपादान कारणो केम.जाणी शकशे ? जो कार्योनां उपादान कारण न जाणे तो जगत् विचित्र केम रंची शके ? तथा ईश्वर स्वतंत्र बे, बीजा कोश्ने आधीन नथी, ईश्वर पोतानी बाथी सर्व जीवोने सुखःख, फल आपे बे. कडं जे. के:- ईश्वरप्रेरितोगत्, स्वर्ग वा स्वमेव वा ॥ अन्योजंतुरनीशोय, मात्मनः सुखपुःखयोरिति ॥ अर्थः-ईश्वरनीज प्रेरणाथी जगत्वासी जीव, स्वर्ग तथा नरकमां जाय डे, कारण के ईश्वर विना कोइ जीव पोते पोताने सुख उखनुं फल आपवाने समर्थ नथी. जो ईश्वरने परतंत्र मानियें तो मुख्य कर्ता ईश्वर रेहेशे नहि, एक बीजाने आधीन मानवाथी अनवस्था दूषण लागी जशे. ते हेतुथी ईश्वर खवश बे परंतु पराधीन नथी. वली ईश्वर नित्य ने जो कदी अनित्य होय तो तेने उत्पन्न करनार बीजो कोश होवो जोश्ये,
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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