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________________ (४५) जैनतत्त्वादर्श. शक्ति कोश्कनेज होय . धनउपार्जन करवानो उपाय निरंतर करवो जोश्ए, परंतु अत्यंत लोज न करवो जोश्ये, धर्म अर्थ अने काम यथावसरे सेवन करवा जोश्ये, परंतु अत्यंत कामासक्त न थq जोए. धन पण न्यायपूर्वक उपार्जन करवू जोश्ए. न्यायोपार्जित धन सत्पात्रादिमां वापरवाना चार जंग , ते लखीए बीए. _न्यायोपार्जित धन सत्पात्रादिमां वापरवाना चार जंग ते लखिये बियें. रन्यायोपार्जितसत्पात्र विनियोगरूप प्रथम नंग. पुण्यानुबंधिपुण्यबंधनो हेतु होवाथी, वैमानिकदेवतापणुं, जोगनूमियुक्त मनुष्यपणुं, सम्यक्त्वादिनी प्राप्ति, निकटमोद फल, इत्यादि, .धन सार्थवाह, तथा शालिजमादिवत्. २ न्यायोपार्जित असत्पात्रविनियोगरूप बीजो नंग. पापानुबंधी पुण्यनो हेतु होवाथी जोगमात्र फल पण ने. तो पण परिणामें विरस फल . जेम लदलोज्य करनार ब्राह्मण अनेकनवोमां किंचित् सुख जोगवीने सेचनक नामें सर्वांग सुलक्षणो ननदस्ती थयो. ३ अन्यायोपार्जित सत्पात्रपरिपोषरूप त्रीजो नंग. तेनुं सारा के. त्रमा सामो वावी देवावत् फल . ए सुखानुबंधीहोवाथी राज्यना कारजारीना अत्यंत आरंज उपार्जित धन समान . एबुं धन पण धर्मकार्यमां वापरवामां आवे तो सारं . श्राबु पर्वत उपर जिनमंदिर बंधावनार विमलचंड तथा वस्तुपाल, तेजपाल मंत्रीनी जेम लानकारक . जो ते, धन पण धर्मकार्यमां न वापरवामां आवे तो मुर्गति तेमज अपकीति, तेनुं फल बे. मम्मण शेउनी जेम. अन्यायोपार्जितकुपात्रपोषरूप चोथो जंग. श्रा जंग सर्व प्रकारे त्यागवा योग्य . कारण के श्रन्यायोपार्जित धन अने तेनो कुपात्रमा उपयोग करवो, ते एq डे के, गायने मारी तेना मांसथी कागडा, पोषण कर. ते कारणथी गृहस्थे न्यायथी धन उपार्जन करवू जोश्ए, श्राझदिनकृत्यसूत्रमा लख्यु के के व्यवहारशुकि, तेज धर्मनुं मूल . जेनो व्यापार शुद्ध , तेनुं धन पण शुद्ध बे; जेनुं धन शुद्ध , तेनो आहार शुद्ध जेनो श्राहार शुद्ध , तेनो देह शुद्ध; जेनो देह शुरू बे, ते धर्मने योग्य बे. एवो पुरुष जे जे कृत्य करे, ते सर्व सफल थाय. जे
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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