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________________ ( ४०० ) जैनतत्त्वादर्श, लमां, वर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि बगडेल देखे, तेमज तेमां सुरसली प्रमुख जीव पडेला देखे तो ते न खाय; जो खायतो जीव हिंसा थाय श्रने रोगोत्पत्तिनुं कारण याय. मिठाइनी मर्यादा छाने वीदलनो निषेध, उपर सातमा व्रतमां लखी श्रव्या बीए, त्यांथी जाणवुं. दहींमां सोल पोर उपरांत जीव उत्पन्न थाय बे, वली विवेकी जीवोयें रींगणां, टींबरु, जांबु, बिलां, पीलु, करमदां, पाकां गुंदां, पंचु, महुडां, मोर, वालोल, मोटां बोर, चणीयांबोर काचां कोठ फल, खसखस, तल इत्यादि न खावां जोइए. तेमां त्रसजीव थाय बे. तथा जे फल लालरंग देखवामां बुरां लागे, पाकीगयेलां तथा गोल, एवा कंकोडां, फणस प्रमुखपण बूरी जावनाना हेतु होवाथी न खावां जोश्ए. वली जे फल जे देशमां खावां विरुद्ध लागे, जेमके कडवं तुंबडुं, कूष्मांड अर्थात् कोहोलुं हलवुं ( कडु ) ते पण न खावां जोइए. वली अजय, अनंतकाय, कंदमूल, पढी ते परघरनां श्रचित करेला, रांघेलां होय तोपण न खावां जोश्ए; कारण के एक तो निःशूकता ने बीजा रसलंपटता तथा वृद्धवादि दोषनो प्रसंग थाय बे. ते कारणी न खावां जोइए. तथा उकालेला सेलरां, रांधेलां आर्द्रादिकंद, सुरण, रींगणाप्रमुख अगर जो के चित्त बे तोपण श्रावक प्रसं गदूषण त्यागवा वास्ते न खाय. वली मूला तो पंचाग खावा योग्य नश्री. निषिद्धत्वात् तथा शुंग ने हलदर, नाम तेमज खाद नेद थवाश्री अजय नथी. तथा उकालेलं पाणी त्रण उत्तरा यावे त्यारे चित्त थइ जाय बे. कथन पिंड निर्युक्तिमां बे. चोखाना धोनुं पाणी ज्यारे नितरीने निर्मल जाय, त्यारे चित्त थाय बे. वली उष्ण जलनी मर्यादा प्रवचनसारोद्धारादि ग्रंथोमां या प्रमाणे लखी डे. त्रण वखत उजरा श्रावेलुं उष्णजल उनालाना चारे मासमां पांच पोर चित्त र हे. या चूलेथी उतार्या पढीनी मर्यादा बे तथा वर्षातुना चारे मा. समांत्रण पोर चित्त, धने शियालाना चारे मासमां चार पोर - चित्त रहे बे, पढी सचित्त थर जाय बे. जो ग्लान, बाल, वृद्धादि साधु वास्ते मर्यादा उपरांत राखवुं होय तो दारादि वस्तुनो प्रदेष करीने राखनुं, तेम करवायी सचित्त यतुं नथी. या कथन प्रवचन सारोद्धारना "
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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