SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३८२ ) जैनतत्त्वादर्श. श्राहार लइ आवजो, एम यथायोग्य कथन करी पोषध करवा श्रावे, पोषध व्रत उचरे; बाद देववंदन कर्या पठी कटास, चरवलो तथा मुहपत्ति, आ ण उपकरण साथै लइ पोताने घेर जनुं होय तो, चादर ढी, साधुनी जेम, उपयोगसंयुक्त मार्गमां यत्नापूर्वक चाली, जोजन स्थानकें जइ, प्रथम इरिया वहिया पडिक्कमे गमनागमननी आलोचना करे, पढी कटासा उपर बेसी, आहार करवानुं जाजन पडिलेही ( प्रतिलेखी) बाद पोताने लेवा योग्य आहार लड़े, साधुनी जेम रस गृद्धिरहित आहार करे, आहारने सारो अथवा बुरो कहे नहि, मुखश्री बोल्या विना आहार करे, श्राहारतुं जूट पडे नहि, श्रहार कर्या पढी उष्ण जलश्री श्राहारनुं वासण धोने पी जाय, वासण शुद्ध करी, सुकवी, उपयोगसंयुक्त पोषधशालामां श्रावे, मार्गमां जतां आवतां कोइनी साथे वात करे नहि, पोषधशालामां पूर्वना स्थानपर यावी बेसे, इरिया वही पडिक्कमि, चैत्यवंदन करी, धर्मक्रियामां प्रवर्त्ते. जो पोतानो संबंधी अथवा सेवक पोषधशालामां श्राहार लइ श्रव्यो होय तो, पूर्वोक्त रीतिए आहार करी वासण पाठां आपी दे, पढी धर्म क्रियामां प्रवर्त्ते. या देशी पोषध कद्देवाय बे; अने जो चारे आहारनां पखाण करी पोषध करे तो सर्वथी कडेवाय बे. या प्रथम नेद बे. 3 २ शरीरसत्कार पोषध. तेमां सर्वथा शरीरसत्कार पोषध ते शरीरनो सर्वथा सत्कार. स्नान, धोवन, धावन, तैलमर्दन, वस्त्राभरणादि शृंगार प्रमुख कां पण शुश्रूषा करे नहि, साधुनी जेम थपरिकमिति शरीर राखे ने जो पोषधमां हाथ, पग प्रमुखनी शुश्रुषा करवी एवो आगार राखे तो ते देश शरीर सत्कार पोषध कद्देवाय बे. ३ ब्रह्मचर्य पोषध. त्रिकरण शुद्धिए ब्रह्मचर्य व्रत पालवं ते सवथा ब्रह्मचर्य पोषध बे; अने मन, वचन, दृष्टि प्रमुखनो आगार राखवो, अथवा परिमाण राखनुं, ते देशथी ब्रह्मचर्य पोषध कहेवाय बे. ४ सर्वथा सावद्यव्यापारनो त्याग, ते सर्वश्री व्यापार पोषध बे, कादि व्यापारनो आगार राखवो ते देशी व्यापार पोषध बे, ए प्रमाणे चारे प्रकारना पोषधना बे बे नेद बे. पूर्वकालमा ज्यारे श्रागम व्यवहारी गुरु विचरता हता, अने श्रावक पण शुद्ध उपयोग
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy