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________________ सप्तम परिजेद. (३१ए) मरणांत फुःख आपे, जेथी मनमा धैर्य न रहे, अने मरणांत कष्ट जाणी कांश विरुद्ध काम करवू पडे तो सम्यक्त्वमा अतिचार जंग नहि. ___५ “गुरुनिग्गदेणं" गुरु ते मातपितादि तेमना आग्रहथी का अनुचित काम करवू पडे; तथा गुरु ते धर्माचार्यादि तथा जिनमंदिर, ते. उने अर्थात् गुरुने को पुष्ट संकट देतो होय, तथा जिनमंदिर तोडतो होय. जिनप्रतिमानुं खंडन करतो होय, तो गुरुनिग्रह , तेउनी रक्षा . वास्ते का अनुचित काम करवू पडे तो सम्यक्त्वमां दूषण नहि. ६ बहो "वित्तिकंतारेणं" वृत्ति जे मुकालादि आपत्ति श्रावी पडे,त्यारे श्राजीविकावास्ते को मिथ्यादृष्टिने अनुसार चालवू पडे, तथा आजीविका वास्ते को विरुद्ध आचरण करवू पडेतो दूषण नहि.आ उ वस्तुना श्रांगारोने ब बिंडी कहे.तथा चार आगार बीजा ले तेपण कहियें जियें. १ अन्नवणालोगेणं" को कार्य अजाणपणे, उपयोग प्राप्या विना, काश्र्नु कांश थर जाय, ज्यारे याद आवे, त्यारे फरी ते कार्य न करवू ते प्रथम आगार. २" सहस्सागारेणं" को काम अकस्मात् थ जाय; पोताना मनमां जाणे के आ काम मारे करवातुं नथी, योगोनी चपलताथी तथा निरंतरना बहु अन्यासथी जाणतां उतां पण विरुष्क कार्य थइ जाय तो सम्यक्त्वमां नंग नहि, या बीजो आगार. ३ “महत्तरागारेणं” को मोटो लान थाय बे, परंतु सम्यक्त्वमां दूषण लागे, तथा को मोटा ज्ञानीनी आज्ञाथी कमवेशी कर, पडे तो, श्रा त्रीजो श्रागार . ४“ सबसमाहि वत्तिया गारेणं" सर्व समाधि व्यत्ययथी अर्थात् मोटा सन्निपातादि रोगोने प्रसंगें बावरा थर जवाथी, तथा अतिवृद्धावस्थामां स्मृतिजंग थवाथी, तथा रोगादि संकट समये मनमा आर्तध्यान थइ जवाने प्रसंगें, तथा सर्पादि डंख मारवाथी असमाधि थवाना समयमां, आ आगार जे. तेथी सम्यक्त्व तथा व्रतजंग थतां नथी. तेवे प्रसंगें, कोई मूर्खना कहेवाश्री आर्तध्यानमां प्राण त्यागवा ते योग्य नथी. केटलाएक जैनमतना अननिझोनुं एम पण कहेवू डे के, गमे तेम थर जाय तोपण, जे नियम लीधेलु , ते कदापि तोडq नहि, आ कहे स
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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