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________________ षष्ठ परिजेद. (२६१) जे कोटवालादि, तेजेनाथी विडंबना पामतां, पोतानां व्यसनजनित कमोंने विरूप जाणी, पोताना कुलनी सुंदरसुख संपत्तिनी अभिलाषा पण करे , तो पण कोटवालोथी बुटीने पूर्वोक्तसुखनो श्वासोवासपण जेम लश् शकतो नथी, तेम आ जीव पण अविरतिपणाने बुरा कर्मनुं फल जाणे बे, अने विरतिना सुंदरसुखनी अभिलाषा पण करे बे, परंतु कोटवाल समान बीजा कषायना बंधनश्री बुटवानेज हिंमत पण करी शकतो नश्री, अने अविरति सम्यक्दृष्टि गुणस्थानकनो अनुभव करे बे. हवे चोथा गुणस्थानकनी स्थिति कहिये बियें. आ गुणस्थानकनी उस्कृष्टी स्थिति तेत्रीश सागरोपमथी कांक अधिक . ते सर्वार्थ सिशादि विमानवासिउनी स्थिति तथा मनुष्यायु अधिकनी, अपेक्षाए बे. वली आ सम्यक्त्व जीवने अर्धपुजल परावर्तन संसार बाकी रहे बे, त्यारे प्राप्त थाय , ते पहेलां थतुं नथी. हवे सम्यक् दृष्टिनां लक्षण कहियेबियें. १ युःखी जीवोनां कुःख दूर करवानी जे चिंता, तेनुं नाम अनुकंपा जे. ५ को कारणथी क्रोध उत्पन्न पण थर जाय, तो पण तीव्र अनुशय अर्थात् वैरनावनो अनाव जेनाथी रहे जे तेनु नाम प्रशम . ३ शिवमंदिर चडवावास्ते सोपान समान, सम्यग् ज्ञानादि साधनोमां उत्साह लक्षण अर्थात् मोदानिलाष तेनुं नाम संवेग बे. ४ अत्यंत कुत्सिततर अर्थात् अत्यंत कनिष्ठ एवा संसार रूप बंदीखानामांथी निकलवा वास्ते परम वैराग्यरूप दरवाननी सेवना करवी तेनुं नाम निर्वेद . ५ श्री सर्वज्ञप्रणीत समस्तजावोनुं यथार्थ चितवन तेनुं नाम आस्तिक्यता बे. था पांच लक्षण जे जीवमां होय ते नव्यजीव सम्यक् दर्शनथी अलंकृत होय . हवे सम्यकदृष्टि गुणस्थानवर्ति जीवोनुं गतिखरूप कहियेबिये. तेमां प्रथम, जीवना परिणाम विशेषरूप जे करण, तेना त्रण प्रकार बे. १ यथाप्रवृत्तिकरण, ५ अपूर्वकरण, ३ अनिवृत्तिकरण, पर्वतमांथी निकलती नदीना जलथी आलोड्यमान पबरनी जेम घोलना घंचना न्यायें, जीव आयुकर्म शिवाय बाकीनां साते कर्मनी स्थिति किंचित् उणी एक कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण जे अध्यवसाय विशेषथी करी, ग्रंथिदेश सुधी आवे , ते यथाप्रवृत्तिकरण कहेवाय , तथा २ जे पूर्व अप्राप्त एवा अ
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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