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________________ अनुक्रमणिका. ५ . पांचमां देशविरति गुणस्थानकनास्वरूपमांश्रावकनाषट्कर्मादि २६३ ६ बा प्रमत संयत गुणस्थानकना स्वरूपमा किंचित् धर्मध्या. ननुं स्वरूप, तथा आ गुणस्थानकमा निरालंबन ध्यान होतुं नथी, तेनो निश्चय करीने, आ कालमां केटलाएक पोतानी कल्पनाथी काश्ने कांश बोले बे, तेउने उपदेश दीधेल . २६५ ७ सातमा अप्रमत गुणस्थानकना स्वरूपमा धर्मध्यान स्वरूप मैत्रीआदि अनेक नेदरूप, तथा श्रा गुणस्थानकमां सामायि. कादि षट् आवश्यक नथी, तेनुं व्याख्यानादि करेल . श्६ए श्रापमा, नवमा, दशमा, अगीयारमा, अने बारमा, ए पांच गुण स्थानकोनुं स्वरूप एक कहेल , तेमां उपशमश्रेणि तथा दपक श्रेणिर्नु किंचित स्वरूप, तथा शुक्लध्यान- स्वरूप सारी रीते विस्तार पुर्वक, रेचक, पूरक, कुंजकादि ध्याननी व्युप्तत्ति सहित अर्थ करीने, तथा स्वरूप कहीने निरु. पण करेल . ०३ ए तेरमा सयोगीगुणस्थानमा सयोगी केवलीना नाव कहेल , तथा तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करवाना वीश स्थानक तथा तीर्थकर जगवाननो महीमा, तथा तीर्थंकर नाम कर्म वेदवानुं स्वरूप, केवली समुद्घातनुं स्वरूप, तथा कोण समुद्घात करे जे? तथा कया केवली नथी करता ? तेनुं स्वरूप, तथा मनादि योगोने केवी रीते सूक्ष्म करे , इत्यादि स्वरूप... २४ १० चौदमा अयोगी गुणस्थानकनुं स्वरूप, तेमां कर्मरहित जी वोनी जे उर्ध्व गति थाय ने तेनो हेतु, तथा सिझोनी स्थिति, . सिझना श्राउ गुण, सिझोना सुख तथा मुक्तिनुं स्वरूप. नए ॥सातमा परिछेदमां सम्यग् दर्शननुं खरूप लखेल, तेनी अनुक्रमणिका॥ १ व्यवहार अने निश्चय ए बंने प्रकारे सम्यक्त्वना स्वरूपमा देवादि त्रण तत्वोपर व्यवहार तथा निश्चय ए बंने प्रकारे श्रकान थाय बे, तेमां प्रथम व्यवहार श्रद्धाननुं कथन, तथा त्रण तत्वोमां पण प्रथम देव तत्वनुं खरूप कथनमा श्रीअरिहंतजीना नामादि चार निदेपर्नु खरूप. ए४
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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