SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३) पंचम परिबेद. रही. या पांच निमित्तोथीज जीव नरकादि गतियोमा जायजे; तेमज सुख दुःखनां फल जोगवे बे. आ पांच निमित्त विना फल प्रदाता ईश्वरादि कोइ पण नथी, जो कोश वादि आ पांच निमित्तोना समवायने ईश्वर माने, तो तो अमे पण ईश्वर कर्त्ता मानी बेशुं, कारण के जैनमतनी तत्त्वगीतामां लखेबुं बे के, अव्यमां जे अनादिव्यत्व शक्ति बे, तेज सर्वपदार्थोंने उत्पन्न करे, तेमज लय करे,ते शक्ति चैतन्य अचैतन्यादि अनंत स्वनाववाली ले तेने ईश्वर कर्ता मानवाथी जैनमतने कांश हानि यती नथी. ३ हवे पुण्यतत्व- स्वरूप लखिये बियें. “येन शुनप्रकृत्या आत्मकं कर्म जीवान् सुखं ददाति तत् पुण्यं” इत्यादि जेणे करी अर्थात् जे शुन प्रकृतिथी पोते करेलां कर्म जीवोने सुख आपे डे ते पुण्य. पुण्य उपार्जन करवानां नव कारण बे, “उक्तं च स्थानांगे" अन्नपुरे पाणपुले लेणपुले सयणपुले मणपुले वयपुसे कायपुणे नमोकारपुष इति सूत्रं ॥ व्याख्या १ पात्रने अन्ननुं दान आपवाथी जे तीर्थकरनामादि पुण्य प्रकृतिनो वंध थाय ते अन्नपुण्य बे, तेवीजरीतें एपीवाने जल श्रापवं, ३ वस्त्र श्रापवां, ४ रहेवाने स्थानक श्रापवां ५ सुवा, बेसवाने आसन आपवां, ६ गुणीजनने देखी मनमां संतोष, खुशी मानवी, गुणिजनोनी वचनथी प्रशंसा करवी कायाथी पर्युपासना अर्थात् सेवा करवी ए गुणि जनोने नमस्कार करवो आ पुण्य उपार्जन करवानी बावतो कही, ते कांश जैनमतवालाउने देवावास्ते कही, एटबुंज नहि परंतु कोश्पण मतवालो अथवा कोश्पण दान देवायोग्य प्राणी होय, तेने अनुकंपाथी जे को दान थापे ते अवश्य पुण्य उपार्जन करे परंतु तफावत एटलो ठे,के पात्रने जे दान आपवामां श्रावशे, ते पुण्य तेमज मोक्ष बनेनो हेतु यशे, अने अनुकंपाथी जे बीजाने दान देवामां आवशे, ते केवल पुण्य उपार्जन करवानोज हेतु थशे. जैनमतना को शास्त्रमा पुण्य करवानो निषेध नथी कारण के जैनमतज्ञ रुषचदेवादि चोवीश तीर्थंकरो थयेला बे; तेजेए दीदा लेतां पहेला एककोड आठ लाख सोनैया दिन दिन प्रति एकवर्षसुधी दान आपेल बे. ते कारणथी जैनमतमा प्रथम दान
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy