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________________ (१९४) जैनतत्त्वादर्श. - कांतिक बे, कारण के केटलाएक श्राद्ध करता नथी तो पण तेउनी संतान वृद्धि देखवामां आवे . सुमनाटोलानी जेवी वृद्धि देखाय बे. तेथी श्रा आदि जे करवू बे, ते मुग्ध लोकोने विप्रतारण ( उगवा) मात्रज फल थाय . जे पितरो लोकांतर पामेला , ते पोताना शुन्न अशुज कमोंने अनुसारे देव, नारकादि गतियोमा सुख दुःख जोगवी रह्या , तो पड़ी ते पुत्र प्रमुखें आपेला पिंडोने केवी रीतें नोगववानी श्वा करी शके ले ? " तथाच युष्मद्यूथिनः पठन्ति ॥ मृतानामपि जंतूनां, श्रा चेत्तृप्तिकारणं ॥ तंनिर्वाणप्रदीपस्य, स्नेहः संवईये निखामिति ॥ • तथा श्राफ करवाथी ते पितरोने पुण्य केवीरीतें पहोचे जे ? कारण के पुण्यतो बीजाए करेढुंबे, वली पुण्य पोते जड रूप , तथा पगरहित बे, तेथी पितरोने पहोची शकतुं नथी. जो कहो के उद्देश तो पितरोनो बे, परंतु पुण्य, श्राछकरनारा पुत्रादिने थाय बे, ते पण केहे वास्तविक नथी. पुत्रादिने पुण्य यतुं नथी, तेनुं कारण ए डे के पुत्रादिना मनमां वासना एवी नथी के जे कार्य अमे करियें लिये तेनुं फल अमने मले, तो पड़ी पुण्यनी नावना विना पुण्य फल मलतुं नथी. ते कारणथी पितरो के पुत्रादि कोश्ने श्राफ करवानुं फल मलतुं नथी, परंतु अधरथीज त्रिशंकुना दृष्टांतनी पेठे विलीन थई जाय बे. __ वली पापानुबंधि जे पुण्य बे, 'ते तत्त्वथी पापरूपज ' जो कहो के ब्राह्मण जे कां खाय , ते पितरोने गमे बे, ते वात सत्य बे एवी प्रतीति तो तमनेज थती हशे, अमारी नजरमां तो ब्राह्मणोनुं मोटुं पेट थयेढुं श्रावे , परंतु तेर्जुना पेटमा प्रवेश करीने, पितरो खाता होय एम कदापि देखता नथी. जोजन अवसरे ब्राह्मणोना उदरमा प्रवेश करता पितरोनुं कांपण चिह्न श्रमारी दृष्टिए पडतुं नथी. केवल ब्राह्मणोज तृप्त थता देखियें लियें. . वली तमे कयु हतुं के अमारी पासे आगम प्रमाण , तो पुलिये बिये के, ते तमारु आगम पौरुषेय बे ? के अपौरुषेय जे ? जो कहो के पौरुषेय , तो शुं ते सर्वज्ञy करेलुं ले ? के असर्वज्ञनुं करेबुं ? जो प्रथम पद मानशो तो तमारा मतने व्याहति थशे, कारण के तमारो श्रा सिद्धांत . " अतींजियाणामर्थानां, सादादृष्टा न विद्यते ॥ नित्ये
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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