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________________ चतुर्थ परिजेद. (२१) एवीरीते वैशेषिक मतमां पण सम्यक् पदार्थोनुं कथन श्राप्तोक्त नथी. तथा नैयायिक, वैशेषिक मतमां जे मोद माने जे तेपण प्रेक्षावानोने मानवा योग्य नथी. ते तो ज्यारे थात्मा ज्ञानथी रहित थाय, अर्थात् जडरूप थश्जाय, त्यारे श्रात्मानो मोद माने. एवा मोदने कयो बुछिमान उपादेय माने? कारण के एवो कोण बुद्धिमान् होय के सर्वसुख तेमज ज्ञानश्री रहित यश् पाषाणतुल्य पोतानो आत्मा करवा चाहे? तेकारणथी कोश्ये वैशेषिकर्नु उपहास्य पण करेल . यथा ॥ श्लोक॥ वरं वृंदावने रम्ये, कोष्टुत्वमनिवांति ॥ न तु वैशेषिकी मुक्तिं, गौतमोगंतुमिति ॥ १॥ स्वर्गनां सुख उपाधिसहित, अवधिवाला बे, तेमज परिमित आनंदरूप , अने मोह तो निरुपाधिक, निरवधिक, अपरिमित श्रानंद ज्ञानसुखस्वरूप, विचरण पुरुष कहे. जो मोद होवू पाषाण तुल्य , तो एवो मोक्ष प्राप्त करवान का प्रयोजन नथी. तेनाथी तो संसारज सारो ले के जे संसारमा कुःखमिश्रित सुख जोगववामां आवेडे, जरा विचार तो करो के थोडा सुखने नोगवद् ते सारूं? के सर्वसुखनो उछेदः सारो ? इत्यादि विशेष चर्चा, स्याछादमंजरीनी टीकाथी जाणवी. ते कारणथी नैयायिक, वैशेषिक बंने मत उपादेय नथी.. हवे सांख्यमतनुं खंडन लखिये बियें. सांख्यमत वास्तविक नथी. जुर्ज, परस्परविरोधी एवां सत्व, रज, तमोगुणोनुं प्रकृति रूपोनुं गुणीविना ए. कत्र अवस्थान अर्थात् रेहेवं ते युक्त नथी. जेम कृष्ण, श्वेतादि गुण, गुणिविना एकत्र रही शकता नथी तथा महत् श्रादि विकार होवामां, प्रकृतिमां विषमता उत्पन्न करनार कोपण कारण नथी; कारण के प्रकृति विना बीजी को वस्तु सांख्य मानता नश्री. श्रआत्माने अकर्त्ता, अर्किचित्कर माने. जो खजावधी वैषम्य मानशो, तो निर्हेतुकतानी आपत्ति श्रावशे, कारण के कार्य कदी होय, 'अने कंदी न होय, ते हेतु विना थश् शकतां नथी. तेमज खरशृंगादि जे नित्य असत् बे, अने आकाशादि जे नित्य सत्वे ते हेतुथी नथी. यथा ॥ नित्यसत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ॥ अपेदातोहिनावानां, कदाचित्तत्वसंचवः॥१॥ वली खनाव प्रकृतिथी निन्न ? के अनिन्न ? निन्न तो नथी,
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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