SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना. । नुप्रवेशात्मक अर्थात् परिणमन धर्मवालो संबंध . था प्रसंगे को शंका . करे के जीवतो अमूर्त , तेने हस्त प्रमुख तो ने नहि, एटले लेवा मु कवानी शक्ति पण नथी, तो तेने कर्म ग्रहण केम संचवे ? समाधान ए बे के जीवने अमूर्त कोणे मान्यो ? जीवने कर्मनो संबंध अनादि बे, अर्थात् बने दीरनीरनी जेम एक होय तेम परिणाम पामे . ए प्रमाणे जीव मूर्त होवाथी कर्म ग्रहण करे . कर्मने सेवा मुकवामां का इस्त प्रमुखनी जरूर पडती नथी; परंतु राग द्वेष, मोहरूप परिणामनी चीकाशथी, तेलमां पडेला वस्त्रने रज चोटवानी जेम जीव कर्मने ग्रहण करे बे, अने तेनाथीज विपरीत एवा सद् अध्यवसायथी जीव कर्मने मुके बे. सारांश के संसार अवस्थामां जीव मूर्त जे. श्रावो जे बंध ते प्रकृति, स्थिति, रस अने प्रदेश एवा चार नेदयी प्रशस्त अने प्रशस्त एम बे प्रकारनो बे. नवमुं मोद तत्व जे. शरीर, इंजिय, आयुष्य आदि बाह्य प्राण, पुण्य, पाप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, पुनर्जन्मग्रहण, वेदत्रय; कषायादि संग, श्रज्ञान, असिहत्व इत्यादि समेत देहादिनो जे श्रात्यंतिक वियोग ते मोद . सारांश के सकल कर्मनुं सर्वथा दय लक्षण ते मोद . श्रा नव तत्वनुं स्वरूप अति सूक्ष्म बे, अति विस्तारवाद् डे अने तेनुं अनुजवरूप स्वरूप समजवामां स्वसंवेदनत्व तथा गुरुगम अवबोधनी संपूर्ण आवश्यकता . नवतत्वनुं प्रकरण कंगन करवाथी जे पोपटीयुं ज्ञान प्राप्त थाय , ते मुमुक्षु थवानी अभिलाषा राखनारा प्राणीउने बस नथी; कारण के शास्त्रमा कयु के " श्रावक तेजे जाणे तत्व" या सूत्रनो अर्थ समजनारा एम मानता होय के अमे नवतत्व कंठे कर्यां एटले श्रावक थया, तो एवं तेमनुं मानतुं यथार्थ नथी. ज्यारे तत्वनुं खरूप यथार्थ रीते जाणवामां आवे अने ते प्रमाणे गुण धारण करवामां आवे त्यारेज श्रावकपणुं प्राप्त थाय . तेवी अनिलाषा धारण करनारा उत्तम जीवोना हीतने अर्थे परम कृपालु महाराजे अनेक प्राचीन, अर्वाचीन महान ग्रंथकारोना अति उत्तम ग्रंथोमांधी जीन वचनामृत, दोहन करी था जैनतत्वादर्श ग्रंथरूप क्यारीमां तेनुं सिंचन करेल . ग्रंथकर्ताए आ ग्रंथy नाम “ जैनतत्वादर्श आपेलुं ते यथार्थ , कारण के था ग्रंथना श्र
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy