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________________ चतुर्थ परिजेद. (१६७) हेश्वरनुं ज्ञान केवीरीते अतीत अनागत अर्थनुं ग्राहक हो शके १ अने तमे तो ईश्वरचं ज्ञान सर्वार्थग्राहक मानो डो, तेथी पूर्वापरविरोध सहज थ गयो. तेवीज रीतें योगियोने पण सर्वार्थग्राहक ज्ञाननो उर्धर विरोध जाणी सेवो. ११ कार्यप्रव्य प्रथम उत्पन्न थवाथी तेनुं रूप पालथी उत्पन्न थाय , श्राश्चर्य विना गुण केवीरीतें उत्पन्न यशके ? एम केहेवा अनंतर कहे के कार्यअव्यनो विनाश थया पड़ी तेना रूपनो नाश थाय . श्रा पूर्वापर विरोध बे, कारण के ज्यारे कार्यअव्यनो नाश थयो त्यारे श्राश्रय विना रूप केवीरीते रही शक्युं ? नैयायिक तेमज वैशेषिक जगत्ना कर्ता ईश्वरने माने जे. श्रा पण तेउनु एक महामूढतानुं चिह्न बे; कारण के ईश्वर, जगत्ना कर्ता कोश्पण प्रमाणथी सिद्ध थश् शकता नथी. था हकीकतनुं बीजा परिछेदमां बहुज विस्तारथी वर्णन करेलु बे, तो पण जव्य जीवने बोध थवा वास्ते थोडो विस्तार अहियां पण करिये बियें. केटलाएक कदे के, साधुऊपर उपकारवास्ते तेमज पुष्टोनो संहार करवावास्ते ईश्वर युगयुगमां अवतार धारण करे; तेमज सुगतादि केटलाएक एम कहे के, मोक्ष प्राप्त कर्या पनी पोताना तीर्थने क्लेशमा दे. खीने नगवान् फरी अवतार धारण करे. यथा ॥ ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदं ॥ गत्वा गळंतियोपि, नवं तीर्थ निकारतति ॥१॥ जे फरी संसारमा अवतार लहे, ते परमार्थथी मोक्षरूप थयाज नथी, कारण के तेनां सर्व कर्मक्षय थयांनथी. जोमोहादि कर्म क्ष्य थयां, होय तो ते पोताना मतनो तिरस्कार देखीने शावास्ते पीडा पामे? तेमज श्रवतार धारण करे? जो साधुऊंना उपकार अर्थे तेमज पुष्टोना संहार वास्ते अवतार लहेडे, एम होय तो तो ते असमर्थ थया, कारण के अवतार लीधा विना ते काम करी शकता नथी, जो करी शकता होत तो, गर्जावासमां शा वास्ते पडे? ते उपरथी साबीत थायडे के तेनां सर्व कर्म क्षय थयां नथी, जो क्ष्य थयां होत तो कदापि अवतार लेत नहि ॥यक्तं॥ दग्धे बीजे यथात्यंतं, प्रार्जवति नांकुरः॥ कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति जवांकुरः॥१॥ उक्तं च श्रीसिद्धसेन दिवाकरपादैरपि ॥ जवाजिगामुकानां,
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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