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________________ श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, सातवा भाग करने से उसके भावविवेक प्रगट होता है। उसे अनार्य कर्तव्यों का शग कर प्राचार्य महाराज के समीप रहते हुए ज्ञान दर्शन चारित्र का अभ्यास काना चाहिये। (३३) जो स्व-पर-सिद्धान्त के जानकार हैं, वाह्य प्राभ्यन्तर तप का सम्यक् रूप से सेवन करते हैं ऐसे ज्ञानी एवं चारित्रशील गुरु महाराज की सेवा शुश्रूषा करते हुए उनकी उपासना करनी चाहिये । जो वीर अर्थात् कर्मों का विदारण करने में समर्थ हैं, आत्महित के अन्वेषक हैं एवं धैर्यशाली और जितेन्द्रिय हैं वे महापुरुष ही उक्त क्रिया का.पालन करते हैं। (३४) गृहवास में श्रुत एवं चारित्र की प्राप्ति पूर्णरूप से नहीं होती ऐसा जान कर जो प्रवज्या धारण करते हैं एवं उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करते हैं वे पुरुष मुमुक्षुजनों के आश्रय योग्य होते हैं । बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त हुए वे वीर पुरुष असंयत जीवन की कभी इच्छा नहीं करते। (३५) मुमुक्षु को मनोज्ञ शब्द रूप रस गन्ध और स्पर्श में आसक्त न होना चाहिये और न अमनोज्ञ शब्दादि से उसे द्वेष ही करना चाहिये । सावधानुष्ठानों में भी उम प्रवृत्ति न करनी चाहिये । इस अध्ययन में जिन बातों का निषेध किया गया है तथा अन्यतीर्थियों के दर्शनों में जो बहुत से अनुष्ठान कहे गये हैं वे सभी जैनदर्शन से विरुद्ध हैं। मुमुक्षु को उनका आचरण न करना चाहिये। __३६) विद्वान् मुनि को अतिमान और माया एवं उनके सहचारी क्रोध और लोभ का त्याग करना चाहिये।ऋद्धि, रस और साता गारव को संसार के कारण जान कर मुनि को उन्हें छोड़ देना चाहिये । कपाय और गारव का त्याग कर उसे मोक्ष की प्रार्थना करनी चाहिये। (सूयगडांग प्रथम श्रुतस्कन्ध नवम अध्ययन).
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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