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________________ ८६ ' भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला दया है। दया धर्म का मूल है । विश्व के सभी धर्म इसी आधार पर स्थित हैं। सृष्टि का व्यवहार भी इसी के आश्रित है। गृहस्थ को सदा सभी प्राणियों के प्रति दया भाव रखना चाहिये । उनका दुःख दूर कर उन्हें सुख पहुंचाने का प्रयत्न करना चाहिये। (३२) सौम्य-गृहस्थ को सदा सौम्य-शान्त स्वभाव रखना चाहिये । क्रूरता को अपने पाम फटकने भी न देना चाहिये । करता लोगों में उद्वेग-भय उत्पन्न करती है । सौग्य प्रकृति वाला सभी को प्रिय लगता है। (३३) परोपकार कर्मठ-गृहस्थ को यथाशक्ति परोपकार, दूसरे का भला करना चाहिये । परोपकार के लिये गृहस्थ को धार्मिक और व्यावहारिक शिक्षण संस्थाएं, पुस्तकालय, अनाथालय, अपंगाश्रम, विधवाश्रम, औषधालय, दानशाला, पशुपक्षियों का दवाखाना, पिंजरापोल आदि संस्थाएं खोलनी और चलानी चाहिये अथवा उनमें धन से सहायता देनी चाहिये तथा उनकी तन मन से सेवा करनी चाहिये । परोपकार महान् धर्म है । इससे बड़ी शान्ति, मिलती है और महापुण्य का वन्ध होता है। एक बार जिसका भला हो गया कि वह सदा के लिये उपकारी के हाथ बिक जाता है। गृहस्थ को उपकार का अवसर कभी न चूकना चाहिये । 'परोपकार जैसा पुण्य नहीं है और दूसरे को दुःख देने जैसा पाप नहीं है, यह अठारह पुराणों का सार है ऐसा महर्षि व्यास ने कहा है। (३४) छःअन्तरंग शत्रुओं का त्याग करना-काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष छ; अन्तरंग अरि कहे गये हैं। गृहस्थ इनसे सर्वथा बच सकता है यह तो सम्भव नहीं है फिर भी अयुक्तिपूर्वक इनका प्रयोग करने से ये गृहस्थ के लिये अकल्याणकारी सिद्ध होते हैं । यथासंभव गृहस्थ को इनका त्याग करना चाहिये। । (३५)इन्द्रिय जय-यद्यपि सर्वथारूप से इन्द्रियनिग्रह करना गृहस्थ
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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