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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ८५ गृहस्थ को परिणाम (नतीजे) का विचार कर कार्य करना चाहिये। (२७) विशेषज्ञ-गृहस्थ को सदा वस्तु अवस्तु, कार्य अकार्य और स्व पर का विवेक रखना चाहिये । उसे आत्मा में क्या गुण दोष हैं इनका भी विचार रखना चाहिये और गुणों की वृद्धि करने और दोपों को दूर करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिये । जो उक्त प्रकार का विवेक रखता है वही विशेषज्ञ कहलाता है। विशेषज्ञ मनुष्य ही जीवन में सफलता पाता है । अविशेषज्ञ का जीवन पशु जीवन से बढ़कर नहीं कहा जा सकता। (२८) कृतज्ञ-गृहस्थ को सदा कृतज्ञ होना चाहिये। दूसरे लोग उसके साथ जो भलाई करें वह उसे सदा याद रखनी चाहिये और सदा उसका एहसानमन्द रहना चाहिये । समय आने पर उपकार का बदला भी देना चाहिये । कृतज्ञ व्यक्ति उत्तरोत्तर कल्याण प्राप्त करता है और लोगों में उसकी प्रशंसा होती है । उसकी सहायता के लिये सभी तैयार रहते हैं और उसका जीवन सुखी होता है। (२६) लोक वल्लभ-विनय आदि गुणों द्वारा सभी लोगों का प्रिय हो जाना लोकवल्लभता है । यह साधारण गुण नहीं है। अनेक गुणों का अभ्यास करने के बाद इस गुण की प्राप्ति होती है। गुणवान् से सभी प्रसन्न होते हैं, निगुण से कोई नहीं । गृहस्थ को भी आत्म गुणों का विकास कर लोकवल्लभ वनना चाहिये । लोकवल्लभ व्यक्ति अपने कल्याण के साथ साथ दूसरों का कल्याण भी सहज ही साध सकता है। (३०) सलज्ज-लज्जा दूसरे अनेक गुणों को जन्म देने वाली है। लज्जावान व्यक्ति चुरे कार्यों में कभी प्रवृत्ति नहीं करता। प्राण त्याग कर भी वह लिये हुए व्रत नियमों का निर्वाह करता है । गृहस्थ को सदा हृदय से लज्जा धारण करनी चाहिये। (३१) सदय-दुःखी प्राणियों के दुःख दूर करने की इच्छाही
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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