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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला करता है। वह कलि (प्रथम स्थान) को कभी ग्रहण नहीं करता और इसी तरह दूसरे तीसरे स्थान को ग्रहण करके भी नहीं खेलता। (२४) जैसे कुशल जुआरी के लिये चौथा स्थान सर्व श्रेष्ठ है वैसे ही लोक में विश्व रक्षक सर्वज्ञ भगवान् ने जो धर्म कहा है वह सर्वोत्तम है। इसको हितकारी और उत्तम समझकर पण्डित मुनि को इसे ठीक उसी प्रकार ग्रहण करना चाहिये जैसे कि जुआरी अन्य स्थानों को छोड़ कर चौथे स्थान को ही ग्रहण करता है। (२५) इन्द्रियों के विषय शब्दादि मनुष्यों के लिये दुर्जेय है ऐसा मैंने सुना है । जो इनसे विपरीत है एवं संयम में सावधान है वे ही भगवान् ऋपभदेव एवं महावीर स्वामी के धर्मानुयायी हैं। (२६) अतिशय ज्ञान वाले महर्षि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी से कहे गये इस उपरोक्त (इन्द्रिय विपयों से निवृत्ति रूप) धर्म का जो आचरण करते हैं वे ही संयम में उस्थित एवं समुत्थित हैं एवं परस्पर एक दूसरे को धर्म में प्रवृत्त करते हैं। __(२७) साधु को चाहिये कि पूर्वमुक्त शब्दादि का स्मरण न करे तथा अष्टविध कर्मों का नाश करने के लिये योग्य अनुष्ठान करता रहे। मन को मलीन करने वाले शब्दादि विषयों की ओर जिनका झुकाव नहीं है वे ही अात्मस्थित समाधि का अनुभव करते हैं। (२८) साधु को चाहिये कि वह स्त्री श्रादि सम्बन्धी विकथा न करे एवं प्रश्न का फल बता कर अपना निर्वाह न करे। उसे वर्पा, धनप्राप्ति आदि के उपाय भी न बताने चाहिये । श्रुतचारित्ररूप जिनभापित सर्वोत्तम धर्म को जान कर उसे संयम क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिये एवं किसी भी वस्तु पर ममता न रखनी चाहिये। (२६) मुनि को चाहिये कि वह क्रोध, मान, माया लोभ का सेवन न करे । जिन महापुरुषों ने इनका त्याग किया है एवं सम्यक् रूप से संयम का आचरण किया है वे ही धर्म की ओर उन्मुख हैं।
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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