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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ७ रागद्वेष रहित होने से एकाकी होता है। (२२) जैसे स्थाणु (वृक्ष का हूँ ठा) निथल गड़ा रहता है उसी प्रकार साधु कायोत्सर्ग के समय निश्चल खड़ा रहता है । (२३) सूने घर में जैसे सफाई सजावट आदि संस्कार नहीं होते उसी प्रकार साधु शरीर का संस्कार नहीं करता । वह बाह्य स्वच्छता, शोभा, शृङ्गार आदि का त्याग कर देता है । (२४) जैसे पवनरहित घर में जलता हुआ दीपक स्थिर रहता है परन्तु कम्पित नहीं होता । इसी प्रकार सूने घर में रहा हुआ साधु देवता मनुष्य आदि के उपसर्ग उपस्थित होने पर भी शुभ ध्यान में स्थिर रहता है परन्तु किञ्चित् भी चलित नहीं होता । (२५) जैसे उस्तरे के एक ओर धार होती है उसी प्रकार साधु भी उत्सर्ग मार्ग रूप एक ही धार वाला होता है । (२६) जैसे सर्प एक दृष्टि वाला यानी लक्ष्य पर ही दृष्टि जमाए रहता है, वैसे ही साधु अपने साध्य मोक्ष की ओर ध्यान रखता है और सभी क्रियाएं उसके समीप पहुंचने के लिये करता है । (२७) आकाश जैसे निरालम्बन-आधाररहित है वैसे ही साधु कुल, ग्राम, नगर आदि के आलम्बन से रहित होता है। (२८) पक्षी जैसे सब तरह से स्वतन्त्र होकर विहार करता है उसी प्रकार निष्परिग्रही साधु स्वजन सम्बन्धी एवं नियतवास आदि बन्धनों से मुक्त होकर देश नगरादि में स्वतन्त्रतापूर्वक विचरता है। (२६) जैसे सर्प स्वयं घर नहीं बनाता किन्तु दूसरों के बनाये हुए बिल में जाकर निवास करता है। इसी प्रकार साधु भी गृहस्थ द्वारा अपने निज के लिये बनाये हुए मकानों में उनकी अनुमति प्राप्त कर शास्त्रोक्त विधि से रहता है। (३०) वायु की गति जैसे प्रतिबन्ध रहित है उसी प्रकार साधु भी बिना किसी प्रतिबन्ध के स्वतन्त्रता पूर्वक विचरता है ।
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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