SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृष्ठ [१६] योल नं० पृष्ठ | बोल न० नीय कर्म बांधता है या ६८३ (८) मनःपर्ययज्ञान का वेदनीय कर्म! १२० विषय क्या है ? १०४ । य १८३ (8) मनापर्ययज्ञानी के यज्ञीयाध्ययन (10 लिये अनन्त प्रदेशी अ० २५) की पैंतास्कन्ध का देखना कैसे लीस गाथाए २५४ कहा गया जबकि ६४ (२२) यतनागाथा ३.१६५ मनापर्ययदर्शन है ६५ योगसंग्रह पत्तीस ही नहीं ? १०५ ८३ (२२) महाव्रत मध्य ४ (२१) रति अरति तीर्थवरों ने चार और गाथा ६ १६३ प्रथम चरम ने पांच क्यों कहे ११६ EE४ (६) रसना (जीम) का ३८५ मार्गाध्ययन सू० अ० । संयम गाथा ७ २१२ ४ (३०) रागद्वेष गा० १८-२३३ ११) की अड़तीस गाथाएं १३/६४ (१५) रात्रि भोजन त्याग गाथा ५ ८३ 'माहण' शब्द का १५४ अर्थ क्या श्रावक भी होता है ? | R६E वंदना के बत्तीस दोप ३८ ६६४ (१७) मृगचर्या ६४ (१६) धमन किये हुए को । गाथा १८६ प्रहण न करना गा० ६.15E ६६४ (E) मोक्षमार्ग ६७६ वाणी के ३५ अतिशय ७१ गाथा १५ ६६४ (२४) विजय गाथा -१६ २००८ मोहनीय कर्म के ६७१ विजय बत्तीस ४३ ओपन नाम ६६४ (२३) विनय गाथा ११-१६५ १३ (२३) मोहनीय कर्म १००६ विनय के पावन भेद २७२ वेदता हुआ जीव मोह- ६४ (३५) वैराग्य गाथा १२-२२८ २७६
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy