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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग १६३ भावार्थ - जो ऋद्धि सत्कार और पूजा का त्याग करता है, जो ज्ञानादि में स्थित है एवं माया रहित है वही भिक्षु है । ( दशवैकालिक दसवा अध्ययन गाथा १७ ) नो सक्किय मिच्छड़ न पूर्य, नो विय वंदणगं कुओ पसंसं । से संजय सुन्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसएस भिक्खु ॥१०॥ भावार्थ- जो साधु सत्कार नहीं चाहता, बन्दना और पूजा की इच्छा नहीं करता एवं प्रशंसा का अभिलाषी नहीं है वही सदनुटान करने वाला, सुव्रत वाला और तपस्वी है। ज्ञान क्रिया सहित होकर मोच की गवेषणा करने वाला वही सच्चा भिक्षु है । ( उत्तराध्ययन पन्द्रहवा ग्रध्यवन गाथा ५ ) रति २१ - रति अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं रयाण परियाय तहाऽरयाणं । निरयोवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं रमेज तम्हा परियाय पंडिए ॥१॥ भावार्थ-संयम में रति रखने वाले मुनियों के लिये साधु पर्याय देवलोक की तरह सुखद है एवं संयम में अरति वालों को यही पर्याय नरक की तरह दुःखद प्रतीत होती है। इसलिये पंडित मुनि सदा साधु-पर्याय में रत रहे । (दशवैकालिक पहली चूलिका गाथा ११) सज्झाय संजम तवे, वेआवचे अ झाण जोगे अ । जो रमइनो रमद्द असंजमम्मि सो वञ्चइ सिद्धिं ॥२॥
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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