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________________ भी सेठिया जैन अन्यमाला से समझते नहीं है और इसलिये उसका पालन करना भी उनके लिये कठिन है । वक्रजड़ शिष्य पूरा स्पष्टीकरण न होने से अपनी वक्रता के कारण कुतर्क करते हैं और वक्ता के आशय के अनुसार यथावत् कार्य नहीं करते । यही कारण है कि उनके लिये पांच महाव्रत रूप धर्म का विधान किया गया है । इस प्रकार विचित्र प्रज्ञा वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिये धर्म दो प्रकार का कहा गया है, वैसे वस्तु स्वरूप में कोई भेद नहीं है। चार महानत रूप धर्म भी पाँच महाव्रत रूप ही है। ब्रह्मचर्य रूप चौथे महावत का यहाँ परिग्रहविरमण में समावेश किया गया है। परिगृहीत स्त्री का ही भोग होता हैं, अपरिगृहीत का नहीं । स्त्री भी परिग्रह रूप है और परिग्रह के त्याग से स्त्री का भी त्याग हो ही जाता है। (भगवती पहला शतक तीसरा उद्देशा टीका) (उत्तराध्ययन २३ अध्ययन) (२३) प्रश्न-मोहनीय कर्म वेदता हुआ जीव क्या मोहनीय फर्म बाँधता है या वेदनीय कर्म बाँधता है ? उत्तर-मोहनीय कर्म वेदता हुआ जीच मोहनीय कर्म पाँधत्ता और वेदनीय कर्म भी बाँधता है । सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में लोभ का सूक्ष्म अंश वेदता हुआ जीव वेदनीय कर्म पाँधता है, मोहनीय कर्म नहीं पाँधता क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीव के मोहनीय और आयु इन दो कर्मों को छोड़ कर शेष छ: कर्मों का ही वन्ध होता है। (औपपातिक सूत्र ३८) (२४) प्रश्न-जीव हल्का और भारी किस प्रकार होता है ? उत्तर-भगवती सत्र के प्रथम शतक के नवें उद्देशे में ऐसे ही प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि अठारह पापस्थानों का आचरण फरने से जीव अशुभ कर्म का उपार्जन कर भारी होता है और फलतः नीच गति में जाता है । अठारह पापस्थानों का त्याग करने से जीव हल्का होता है एवं वह ऊर्च गति प्राप्त काता है।
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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