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________________ श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवां भाग ११६ उसमें थोड़ा सा दोष लगने से वे सोचते कि हमारा चारित्र ही नष्ट हो गया, हम भ्रष्ट हो गये और इस प्रकार वे व्याकुल हो उठते। छेदोपस्थापनीय चारित्र का विधान होने से इन साधुओं के आगे ऐसा मौका आने की सम्भावना नहीं है। व्रतों के आरोपण के बाद सामायिक के अशुद्ध हो जाने पर भी व्रतों के अखण्डित रहने से वे अपने को चारित्रवान समझते हैं क्योंकि चारित्र प्रवरूप भी होता है। कहा भी है-- रिउ वक्कजडा पुरिमेयराण सामाइए वयारहणं । मणयमसुद्धेऽवि जओ सामाइए हुति हु बयाइ । भावार्थ-प्रथम और चरम तीर्थङ्करों के साधु क्रमशः ऋजु और वक्रजड़ होते हैं। उनके लिये सामायिक के बाद व्रतों का प्रारोपण कहा है। सामायिक में थोड़ा दोप लग जाने पर भी उनके व्रत बने रहते हैं, उनमें कोई बाधा नहीं आती। (भगवती श० १ उ० ३ टीका) नोट--सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र का स्वरूप इसी ग्रन्थ के पहले भाग में बोल नम्बर ३१५ में दिया गया है। (२२) प्रश्न-प्रथम एवं अन्तिम तीर्थङ्करों के प्रवचन में पाँच महावत रूप धर्म बतलाया है एवं वीच के बाईस तीर्थङ्करों के प्रवचन में चार महाव्रत रूप धर्म कहा गया है। परस्पर विरोध रहित सर्वज्ञ के वचनों में यह विरोध क्यों हैं ? उत्तर-पहले तीर्थङ्कर के साधु ऋजु जड़ होते हैं और चरम तीर्थङ्कर के साधु वक्रजड़ होते हैं जबकि मध्यम तीर्थङ्कगें के साधु ऋजुम्राज्ञ होते हैं। ऋजुप्राज्ञ साधु सरल एवं बुद्धिशाली होते हैं। वे वक्ता के आशय को ठीक समझ वर सरल होने से तदनुसार प्रवृत्ति करते हैं । चार महावत रूप धर्म में पॉच महावत का भी समावेश है यह समझ कर वे उसका भी पालन करते हैं । इसके विपरीत ऋजुजड़ शिष्य पूरा स्पष्टीकरण न होने से पूरी तौर
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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