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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग २१ . xmmmmmmmm (२०) पन्थद्वार-वे महात्मा तीसरी पौरिसी में विहार करते हैं। यदि जंघावल क्षीण हो जाय और विहार करने की शक्ति न रहे तो वे एक ही जगह रहते हैं किन्तु किसी प्रकार के अपवाद मार्गका सेवन न करते हुए दृढ़ता पूर्वक अपने कल्प का पालन करते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र को स्वीकार करने वालों के दो भेद हैं। इत्वर और यावत्कथिक । जो परिहार विशुद्धि कल्प को पूरा करके फिर से इसी कल्प को प्रारम्भ करते हैं या गच्छ में आकर मिल जाते हैं वे इत्वर परिहार विशुद्धि चारित्र वाले कहलाते हैं । जो इस कल्प को पूरा करके जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं वे यावत्कथिक परिहार विशुद्धि चारित्र वाले कहलाते हैं । इत्वर परिहार विशुद्धि कल्प वालों के कल्प के प्रभाव से देव, मनुष्य और तिर्यञ्चकृत उपसर्ग, रोगऔर असह्य वेदना आदि उत्पन्न नहीं होते किन्तु यावत्कथिक कल्प को स्वीकार करने वालों के ये सब बातें हो सकती हैं। (पनवणा पद १सू० ३७ टीका ) १०६-असमाधि के बीस स्थान जिस कार्य के करने से चित्त में शान्ति लाभ हो, वह ज्ञानदर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में लगा रहे, उसे समाधि कहते हैं । ज्ञानादि के अभाव रूप अप्रशस्त भाव को असमाधि कहते हैं। नीचे लिखे वीस कारणों का सेवन करने से स्व पर और उभय को इस लोक और परलोक में असमाधि उत्पन्न होती है, इनसे चित्त दूपित हो कर चारित्र को मलिन कर देता है इसलिये ये असमाधि स्थान कहे जाते हैं। (१) दव दवचारी-जल्दी जल्दी चलना । संयम तथा आत्मा का ध्यान रक्खे बिना शीघ्रता पूर्वक विनाजयणा के चलने वाला व्यक्ति कहीं गिर पड़ता है और उससे असमाधि प्राप्त करता है।
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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