SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह छठा भाग २४१ बड़ी है । ऊंट के समान आकार वाली वह कुम्भी ऊंची रही हुई है और रक्त और पीच से भरी हुई है। (२५) आर्तनाद पूर्वक करुण क्रन्दन करते हुए नारकी जीवों को परमाधार्मिक देव रक्त और पीव से भरी हुई उस कुम्भी के अन्दर डाल कर पकाते हैं। प्यास से पीडित होकर जब वे पानी मांगते हैं तब परमाधार्मिक देव उन्हें मद्यपान की याद दिलाते हुए तपाया हुआ सीसा और तांबा पिला देते हैं जिससे वे और भी ऊंचे स्वर में आर्तनाद करते हैं। (२६) इस उद्देशे के अर्थ को समाप्त करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इस मनुष्य भव में जो जीव दूसरों को ठगने में प्रवृत्ति करते है वास्तव में वे अपनी आत्मा को ही ठगते हैं । अपने थोड़े सुख के लिए जो जीव प्राणि बध आदि पाप कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं वे लुब्धक आदि नीच योनियों में सैकड़ों और हजारों बार जन्म लेते हैं। अन्त में बहुत पाप उपार्जन कर वे नरक में उत्पन्न होते हैं। वहां उन्हें चिर काल तक दुःख भोगने पड़ते हैं। पूर्व जन्म में उन्होंने जैसे पाप किये हैं उन्हीं के अनुरूप वहां उन्हें वेदना होती है। (२७) प्राणी अपने इष्ट और प्रियजनों के खातिर हिंसादि अनेक पाप कर्म करता है, किन्तु अन्त में कर्मों के वश वह अपने इष्ट और प्रियजनों से अलग होकर अकेला ही अत्यन्त दुर्गन्ध और अशुभ स्पर्श वाले तथा मांस रुधिरादि से पूर्ण नरक में उत्पन्न होता है और चिर काल तक वहां दारुण दुःख भोगता रहता है। (मूयगडाग स्त्र अध्ययन ५ उद्देशा १) ६४८-आकाश के सत्ताईस नाम जो जीवादि द्रव्यों को रहने के लिए अवकाश दे उसे आकाश कहते हैं। भगवती सूत्र में आकाश के सत्ताईस पर्यायवाची शब्द दिये
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy