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________________ २३८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला संज्ञाहीन हो जाते हैं। उन्हें कोई शरण दिखाई नहीं देती। कई परमाधार्मिक देव अपने मनोविनोद के लिए शूल और त्रिशूल से वेध कर उन्हें नीचे पटक देते हैं । (१०) परमाधार्मिक देव किन्हीं किन्हीं नारकी जीवों को गले में बड़ी बड़ी शिलाएं बांध कर अगाध जल में डुबा देते हैं । फिर उन्हें खींच कर तप्त बालुका तथा मुर्मुराग्नि में फेंक देते हैं और चने की तरह भूनते हैं । कई परमाधार्मिक देव शूल में बींधे हुए मांस की तरह नारकी जीवों को अग्नि में डाल कर पकाते हैं। (११) सूर्य रहित, महान् अन्धकार से परिपूर्ण, अत्यन्त ताप वाली, दुःख से पार करने योग्य, ऊपर, नीचे और तिर्छ अर्थात् सब दिशाओं में अग्नि से प्रज्वलित नरकों में पापी जीव उत्पन्न होते हैं। (१२) ऊंट के आकार वाली नरक की कुम्मियों में पड़े हुए नारकी जीव अग्नि से जलते रहते हैं। तीव्र वेदना से पीड़ित होकर वे संज्ञा हीन बन जाते हैं। नरक भूमि करुणाप्राय और ताप का स्थान है। वहां उत्पन्न पापी जीव को क्षणभर भी सुख प्राप्त नहीं होता किन्तु निरन्तर दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है। (१३) परमाधार्मिक देव चारों दिशाओं में अग्नि जला कर नारकी जीवों को तपाते हैं। जैसे जीती हुई मछलो को अग्नि में डाल देने पर वह तड़फतो है किन्तु वाहर नहीं निकल सकती, इसी तरह वे नारकी जीव भी वहीं पड़े हुए जलते रहते हैं किन्तु बाहर नहीं निकल सकते। (१४) संतक्षण नामक एक महानरक है । वह प्राणियों को अत्यन्त दुःख देने वाली है। वहां क्रूर कर करने वाले परमाधार्मिक देव अपने हाथों में कुठार लिये हुए रहते हैं। वे नारकी जीवों को हाथ पैर बांध कर डाल देते हैं और कुठार द्वारा काठ की तरह उनके अङ्गोपांङ्ग काट डालते हैं।
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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