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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग २३५ का तीव्रता के साथ विनाश और उपमर्दन करते हैं, दूसरों को चीजों को विना दिये ग्रहण करते हैं और सेवन करने योग्य संयम का किचित् भी सेवन नहीं करते वे नरक में उत्पन्न होते हैं। (५) जो जीव प्राणियों की हिंसा करने में बड़े ढीठ हैं, धृष्टता के साथ प्राणियों की हिसा करते हैं और सदा क्रोधाग्नि से जलते रहते हैं वे अज्ञानी जीव मरण के समय तीव्र वेदना से पीडित होकर नीचा सिर करके महा अन्धकार युक्त नरक में उत्पन्न होते हैं। (६) मारो, काटो, भेदन करो, जलाओ, इस प्रकार परमाधार्मिक देवों के वचन सुन कर नारकी जीव भयभीत होकर संज्ञाहीन हो जाते हैं । वे चाहते हैं कि इस दुख से बचने के लिए किसी दिशा में भाग जायें। (७) बलती हुई अंगार राशि अथवा ज्वालाकुल पृथ्वी के समान अत्यन्त उष्ण और तत नरक भूमि में चलते हुए नारकी जीव जलने लगते हैं और अत्यन्त करुण स्वर में विलाप करते हैं। इन वेदनाओं से उनका शीघ्र ही छुटकारा नहीं होता किन्तु बहुत लम्वे काल तक उन्हें वहाँ रहना पड़ता है। (८) उम्तरे के समान तेज धार वाली वैतरणी नदी के विषय में शायद तुमने सुना होगा। वह नदी बड़ी दुर्गम है । परमाधामिक देवां से वाण तथा भालों से विद्ध और शक्ति द्वारा मारे गये नारकी जीव घबरा कर उस चैतरणी में कूद पड़ते हैं। किन्तु वहां पर भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। (8) वैतरणी नदी के खारे, गर्म और दुर्गन्ध युक्त जल से सन्तम होकर नारकी जीव परमाधामिक देवों द्वारा चलाई जाती हु काटेदार नाव में चढ़ने के लिए नाव की तरफ दौड़ने हैं। ज्यों है। वे नाव के समीप पहुँचते हैं त्योहा नाव में पहले से चढ़े हुए पामाधार्मिक देव उनके गले में काल चुभा देते हैं जिससे वे
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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