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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग २.१ (8) परमाधार्मिक देव नारकी जीवों को अधोमुख लटका कर उनकी चमड़ी उतार लेते हैं और वज्र के समान चोंच वाले गीध और काफ पक्षी उन्हें खा जाते हैं। इस प्रकार छेदन भेदन आदि का मरणान्त कष्ट पाकर भी नारकी जीव आयु शेष रहते मरते नहीं हैं इसलिए नरक भूमि संजीवनी कहलाती है। क्रूर कर्म करने वाले पापात्मा चिरकाल तक ऐसे नरकों में दुःख भोगते रहते हैं। (१०) वश में आये हुए जंगली जानवर के समान नारकी जीवों को पाकर परमाधार्मिक देव तीखे शूलों से उन्हें बींध डालते हैं। भीतर और बाहर आनन्द रहित दुखी नारकी जीव दीनता पूर्वक करुण विलाप करते रहते हैं। (११) नरक में एक ऐसा घात स्थान है जो सदा जलता रहता है और जिसमें विना काठ की (वैक्रिय पुद्गलों) की अनि निरन्तर जलती रहती है। ऐसे स्थान में उन नारकी जीवों को बांध दिया जाता है। अपने पाप का फल भोगने के लिए चिर काल तक उन्हें वहाँ रहना पड़ता है । वेदना के मारे वे जोर जोर से चिल्लाते रहते हैं। (१२) परमाधार्मिक देव विशाल चिता बना कर उसमें करुण क्रन्दन करते हुए नारकी जीवों को डाल देते हैं। अग्नि में डाले हुए घी के समान उन नारकी जीवों का शरीर पिघल कर पानी पानी हो जाता है किन्तु फिर भी वे मरते नहीं हैं। (१३) निरन्तर जलने वाला एक दूसरा उष्ण स्थान है। निधत्त और निकाचित कर्म बांधने वाले प्राणी वहाँ उत्पन्न होते हैं । वह स्थान अत्यन्त दुःख देने वाला है। नरकपाल शत्रु की तरह नारकी जीवों के हाथ और पैर बांध कर उन्हें डण्डों से मारते हैं। (१४) पम्माधार्मिक देव लाठी से मार कर नारको जीवों की कमर तोड़ देते हैं। लोह के घन से उनके सिर को तथा दूसरे अङ्गों को चूर चूर कर देते हैं । तपेहुए आरे से उन्हें काठ की तरह चीर
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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