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________________ ६१८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला द्वारा जानकर सरल और मोक्ष प्राप्त कराने वाले धर्म का उपदेश दिया है उस धर्म को आप लोग सुनो । तप करते हुए ऐहिक और पारलौकिक फल की इच्छा न करने वाला, समाधि प्राप्त भिक्षुक प्राणियों का आरंभ न करते हुए शुद्ध संयम का पालन करे। (२) ऊँची, नीची तथा तिर्की दिशा में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं, अपने हाथ पैर और काया को वश कर साधु को उन्हें किसी तरह से दुःख न देना चाहिए, तथा उसे दूसरे द्वारा विना दी हुई वस्तु ग्रहण न करनी चाहिए। (३) श्रुतधर्म और चारित्र धर्म को यथार्थ रूप से कहने वाला, सर्वज्ञ के वाक्यों में शङ्का से रहित, प्रासुक आहार से शरीर का निवोह करने वाला, उत्तम तपस्वी साधु समस्त प्राणियों को अपने समान मानता हुआ संयम का पालन करे। चिरकाल तक जीने की इच्छा से श्राश्रवों का सेवन करे तथा भविष्य के लिए किसी वस्तु का सञ्चय न करे। . (४ साधु अपनी समस्त इन्द्रियों को स्त्रियों के मनोज्ञ शब्दादि विषयों की ओर जाने से रोके । बाह्य तथा आभ्यन्तर सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर संयम का पालन करे। ससार में भिन्न भिन्न जाति के सभी प्राणियों को दुःख से व्याकुल तथा संतप्त होते हुए देखे। (५) अज्ञानी जीव पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को कर देता हुआ पाप कर्म करता है और उसका फल भोगने के लिए पृथ्वीकाय आदि में बार बार उत्पन्न होता है। जीव हिंसा स्वयं करना तथा दूसरे द्वारा कराना दोनों पाप हैं। (६) जो व्यक्ति कंगाल, भिखारी आदि के समान करुणा जनक धंधा करता है वह भी पाप करता है, यह जानकर तीर्थङ्करों ने भावसमाधि का उपदेश दिया है। विचारशील व्यक्ति समाधि
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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