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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग (६) मित्र द्रोही अर्थात् मित्र से भी द्वेष करने वाला । (१०) मिथ्याभिमान करने वाला । (११) लोभी अर्थात् अधिक लोभ करने वाला अथवा लुब्ध अर्थात् रसादि में वृद्धि रखने वाला । (१२) असंयमी अर्थात् इन्द्रियों को वश में न करने वाला । (१३) अपने साथियों की अपेक्षा अधिक हिस्सा लेने वाला अथवा प्राप्त हुई आहारादि वस्तु में से थोड़ा सा भी दूसरे को न देने वाला, केवल अपना ही पोषण करने वाला । ३१ (१४) अमीति (शत्रुता) करने वाला, अथवा जिसकी शक्ल देख कर और वचन सुन कर सब लोगों को अभीति उत्पन्न हो । इनमें से एक भी दुर्गुण जिस में हो वह श्रविनीत कहलाता है। (उत्तराध्ययन अध्ययन ११ गाथा ६-६) ८३६- माया के चौदह नाम कपट करना माया कहलाती है । इसके समानार्थक चौदह नाम हैं। यथा ( १ ) उपधि - किसी मनुष्य को ठगने के लिये प्रवृत्ति करना । ( २ ) निकृति - किसी का आदर सत्कार करके फिर उसके साथ माया करना अथवा एक मायाचार छिपाने के लिये दूसरा मायाचार करना । (३) वलय - किसी को अपने जाल में फंसाने के लिए मीठे मीठे वचन बोलना । ( ४ ) गहन - दूसरों को ठगने के लिए अव्यक्त शब्दों का उच्चारण करना अथवा ऐसे गहन (गूढ ) तात्पर्य वाले शब्दों का प्रयोग कर जाल रचना कि दूसरे की समझ में ही न आवे । (५) म - मायापूर्वक नीचता का आश्रय लेना । (६) कल्क - हिंसाकारी उपायों से दूसरे को ठगना ।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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