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________________ 136 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ~~~~~~ ~~~ ~ " " ... ~ ~ उपालम्भ देने लगते हैं किन्तु उस साधु के द्वारा वेदना को शान्ति, वैयावञ्च आदि कारण बतला देने पर वे आचार्य सन्तुष्ट हो जाते हैं। जिस तरह धन्ना सार्थवाह ने दसरा उपाय न होने के कारण अपने पुत्र को मारने वाले चोर को भोजन दिया इसी तरह साधु को चाहिए कि सिर्फ संयम के निर्वाह के लिए चोर समान इस शरीर को भोजन दे, शरीर की पुष्टि प्रादि किसी दूसरे उद्देश्य कोलिए नहीं। जिस तरह सराय में ठहरने के लिए मकान का भाडादेना पड़ता है उसी तरह संयम निर्वाह के लिए शरीर को भोजन रूपी भाड़ा देना चाहिए। (3) जिनदत्त और सागरदत्त को कथा तीसरा अण्डक ज्ञात अध्ययन-समफिल की शुद्धि के लिएशका दोष का त्याग करना चाहिए / शंका छोष का त्याग करने वाले परुप को शुद्ध समकित रत्न की प्राप्ति होती है और शंकाआदि करने वाले को समकित रत्न की प्राप्ति नहीं होती / इस बात को बताने के लिए तीसरे अध्ययन में अण्डे का दृष्टान्त दिया गया है। __चम्पा नगरी के अन्दर जिनदत्त और सागरदत्त नाम के दो सार्थवाष्ठ पुत्र रहते थे। वे दोनों बालमित्र थे। क्रीड़ा के लिए उद्यान में गए हुए दोनों मित्रों ने एक जगह मयूरी के अण्डे देखे / उन अण्डोको उठा कर वे दोनों मित्र अपने अपने घर ले आये और बूकड़ी के अण्डों के साथ रख दिये। सागरदत्त को यह शङ्का हुई कि इन अण्डों में से मयूरी के बच्चे पैदा होंगे या नहीं ? इसलिए वह उनको वारवार हिला कर देखने लगा। हिलाने से वे अण्डे निर्जीव हो गये। जिससे उसको अति खेद और चिन्ता हुई। जिनदत्त ने उन अण्डों के विषय में कोई शहा न की, इसलिए
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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