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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पांचवां भाग ३५५ जाना । मुझे मत ढूँढना । मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगा। ऐसा लिख फरसोती हुई दमयन्ती को छोड़ कर नल मागेजंगल में चला गया। कुछ आगे जाने पर नल ने जंगल में एक जगह जलती हुई भाग देखी। उसमें से आवाज आ रही थी- हे इक्ष्वाकुलनन्दन राजा नल ! तू मेरी रक्षा कर अपना नाम सुन कर नल चौक पड़ा। वह तेजी से उस ओर बढ़ा। आगे जाकर क्या देखता है कि जलती हुई अग्नि के वीच एक सांप पड़ा हुआ है और वह मनुष्य की वाणी में अपनी रक्षा की पुकार कर रहा है। राजा नल ने तत्काल साँप को अग्नि से बाहर निकाला। बाहर निकलते ही सपे ने राजा नल के दाहिने हाथ पर डंक मारा जिससे वह कुबड़ा वन गया। अपने शरीर को विकृत देख कर नल चिन्ता करने लगा। राजा को चिन्तित देख कर सर्प ने कहा-हे वत्स ! तू चिन्ता मत कर । मैं तेरा पिता निषध हूँ। संयम का पालन कर मैं ब्रह्मदेवलोक में देव हुआ हूँ। तू अभी अकेला है । तुझे पहिचान कर कोई शत्रु उपद्रव न करे इसलिए मैंने तेरारूप विकृत बना दिया है। यह ले मैं तुझे रूपपरावर्तिनी विद्या देता हूँ जिससे तू अपनी इच्छानसार रूप बना सकेगा । पूर्वभव के अशुभ कर्मों के उदय से कुछ काल के लिए तुझे यह कष्ट प्राप्त हुआ है। बारह वर्ष के बाद तेरा दमयन्ती से पुनर्मिलन होगा और तुझे अपना राज्य वापिस प्राप्त होगा। ऐसा कह कर सपेरूपधारी देव अन्तान होगया। राजा नल वहाँ से आगे बढ़ा। भयङ्कर जंगली जानवरों फा सामना करता हुआ वह जंगल से बाहर निकला। नगर की ओर प्रयाण करता हुआ वह सुंसुमार नगर में जा पहुंचा। सँसुमार नगर में दधिपणे राजा राज्य करता था। एक समय उसका पट्टहस्ती मदोन्मत्त होकर गजबन्धनस्तम्भ को तोड़ कर भाग निकला। औरतों, बच्चों और मनुष्यों को कुचलता हुशा
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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