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________________ ३२४ श्री सेठिया जैन मन्यमाला कर राजा विदेह को बहुत प्रसन्नता हुई । उनका उचित सत्कार करके उन्हें अयोध्या की ओर विदा किया। सीता का दूसरा नाम जानकी था। वह परमसुन्दरी एवं रूपवती थी। उसके रूप लावण्य की प्रशंसा चारों मोर फैल चुकी थी। एफ समय नारद मुनि उसे देखने के लिये मिथिला में आये । राजमाल में पाकर वे सीधे वहाँ पहुँचे जहाँ जानकी अपनी सखियों के साथ खेल रही थी। नारद मुनि के विचित्र रूप को देख कर जानकी दर कर भागने लगी, दासियों ने शोर किया जिससे राजपुरुप वहाँ पहुँचे और नारद मुनि को पकड़ कर अपमान पूर्वक महल से बाहर निकाल दिया। नारद मुनि को बड़ा क्रोध भाया। वेस अपमान का बदला लेने का उपाय सोचने लगे। सीता का एक चित्र बना कर वे वैताढ्य गिरि पर विद्याधरकुमार भामण्डल के पास पहुँचे। भामण्डल को वह चित्रपट दिखला कर सीता को हर लाने के लिये नारदमुनि उसे उत्साहित कर वहाँ से चले गये। चित्रपट देख कर भामण्डल सीता पर मुग्ध होगया। उसकी माप्ति के लिये वह रात दिन चिन्तित रहने लगा । राजपुत्र की चिन्ताभौर उदासीनता का कारण मालूम करके चन्द्रगति ने एक दत जनक के पास भेजा और अपने पुत्र भामण्डल के लिये सीताकी मांगणी की। दत की बात सुन कर राजा जनक ने उत्तर दिया कि मैंने अपनी प्यारी पुत्री सीता का स्वयंवर द्वारा विवाह करने का निश्चय किया है। स्वयंवर में सव राजाओं को निमन्त्रण दिया जायगा। मेरी प्रतिमा के भनुसार देवाधिष्ठित वज्रावर्स नाम का धनुप वहॉरखा जायगा । जो धनुप पर वाण चढ़ाने में समर्थ होगा उसी के साथ सीता का पाणिग्रहण होगा। दूत्त ने चैताढ्य गिरि पर भाकर सारी वात चन्द्रगति को कह सुनाई । राजा ने भामण्डल को माश्वासन दिया और सीता के स्वयंवर की प्रतीक्षा करने लगा।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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