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________________ २५ त्रामा०पा मग मन्पनामा चार होने देना ही राजधर्म है? __ चन्दनाला के मुख से धारिणी की मृत्यु का समाचार सुन कर मृगावती को बहुत दुःख हुमा। वह शोक करने लगी कि मेरे पति के अत्याचार से पीड़ित हो कर कितनी माताओं को अपने सतीत्व की रक्षा के लिए प्राण त्यागने पड़े होंगे। कितनी अपने सतीत्व को खो बैठी होंगी। धिकार है ऐसी राज्यलिप्सा को। चन्दनवाला ने मृगावती को सान्त्वना देते हुए कहा-मेरी माता ने पवित्र उद्देश्य से प्राण दिए हैं। इस प्रकार प्राण देने वाले विरले ही होते हैं। उनके लिएशोक करने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो यह कह रही हूँ-जिस राजमहल में चलने के लिए मुझे कहाजा रहा है उसमें किए गए विचारों का परिणाम कैसा भयङ्कर है। वह फिर कहने लगी- राजा का कर्तव्य है कि वह अपने नगर तथा देश में होने वाली घटनाओं से परिचित रहे। क्ण मापको मालूम है कि आप के नगर में कौन दुग्बी है ? किस पर कैसा अत्याचार हो रहा है ? कैसा अनीतिपूर्ण व्यवहार खुल्लमखुल्ला हो रहा है ? भाप ही की राजधानी में दास दासियों का क्रयविक्रय होता है। क्या भापने कभी इस नीच व्यापार पर ध्यान दिया है ? मैं स्वयं इसी नगर के चौराहे पर बिकी हूँ। मुझे एक वेश्या खरीद रही थी। मेरे इन्कार करने पर उसने बलपूर्वक ले जाना चाहा । बहुत से नागरिक भी उसकी सहायता के लिए तैयार हो गए। अकस्मात् बन्दरों के बीच में भा जाने से वेश्या का उद्देश्य पूरा न हुमा।नहीं तो अपनेशील की रक्षा के लिए मुझे कौनसा उपाय भङ्गीकार करना पड़ता, या कुछ नहीं कहा जा सकता। भाग्य से रयी को बीस लाख सोनये देकर सेठजी मुझे अपने घरले माए। इन्होंने मुझे अपनी पुत्री के समान रक्खा और आज भगवान महावीर का पारणा हुआ।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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