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________________ श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १६५ (५) वनीपक-श्रमण,शाक्य,सन्यासी आदि में जो जिसका भक्त हो उसके सामने उसी की प्रशंसा करके या दीनता दिखा कर आहारादि लेना। (६)चिकित्सा-औषधि करना यावतानाआदि चिकित्सक का काम करके आहारादि ग्रहण करना। (७)क्रोध-क्रोध करके या गृहस्थकोशापादिका भय दिखा कर भिक्षा लेना। (८) मान-अभिमान से अपने को प्रतापी, तेजस्वी, बहुश्रुत बताते हुए अपना प्रभाव जमा कर आहारादि लेना। (8)माया-वञ्चना या चलनाकरके आहारादिग्रहण करना। (१०)लोभ- आहार में लोभ करना अथोत भिक्षा के लिए जाते समय जीभ के लालच से यह निश्चय करके निकलना कि आज तो अमुक वस्तु ही खाएंगे और उसके अनायास न मिलने पर इधर उधर ढूँढना तथा दूध आदि मिल जाने पर जिह्वाखादवश चीनी श्रादि के लिए इधर उधर भटकना लोभपिण्ड है। (११) माक्पश्चात्संस्तव (पुन्विपच्छा संथव)-आहारलेने के पहले यापीछे देने वाले की प्रशंसा करना। (१२)विद्या-स्त्रीरूपदेवतासे अधिष्ठित या जप, होम आदि से सिद्ध होने वाली अक्षरों की रचना विशेष को विद्या कहते हैं। विद्या का प्रयोग करके आहारादि लेना विद्यापिण्ड है। (१३) मन्त्र-पुरुषरूप देवता के द्वारा अधिष्ठित ऐसी अक्षर रचना जो पाठ मात्र से सिद्ध हो जाय उसे मन्त्र कहते हैं। मन्त्र के प्रयोग से लिया जाने वाला आहारादि मन्त्र पिण्ड है। (१४)चूर्ण-अदृश्य करने वाले मुरमे श्रादिकाप्रयोग करके जो आहारादि लिए जाय उन्हें चूर्णपिण्ड कहते हैं। (१५) योग-पॉव लेप आदि सिद्धियॉवताकर जो आहारादि
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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