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________________ १२४ rammmmmmmmmm श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (चारित्र प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। चारित्र चिन्तामरि के तुल्य है । इसकी प्राप्ति के बाद दूसरी बातें शीघ्र ही प्राप्त है जाती हैं। अतः प्रमाद रहित होकर सदा काल चारित्र माप्ति लिये यत्न करना चाहिये। . (पच वस्तुक, गाथा १५६-१६ ८५१- दीक्षा देने वाले गुरु के पन्द्रह गुण गृहस्थावास छोड़ कर पाँच महाव्रत रूप मुनि व्रत अंगीका करने को दीक्षा कहते हैं। नीचे लिखे पन्द्रह गुणों से युक्त साधु पनि व्राजक पद अर्थात् दीक्षा देने वाले गुरु के पद के लिये योग्य होता है (१) विधिप्रपन्न प्रव्रज्य- दीक्षा देने वाला गुरु ऐसा होन चाहिए जिसने स्वयं विधि पूर्वक दीक्षा ली हो।। (२) आसेवित गुरु क्रम-जिसने गुरु की चिर काल तक सेव की हो अर्थात् जो गुरु के समीप रहा हो। (३) अखण्डित व्रत-दीक्षा अंगीकर करने के दिन से लेक जिसने कभी चारित्र की विराधना न की हो। (४)विधिपठितागम-सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप आगम के जिसने गरु के पास रह कर विधिपूर्वक पढ़ा हो। (५) तत्त्ववित्-शास्त्रों के अध्ययन से निर्मल ज्ञान वाला होने से जो जीवाजीवादि तत्वों को अच्छी तरह जानता हो। (६)उपशान्त-मन,वचन और काया के विकार से रहित हो। (७) वात्सल्ययुक्त-साधु,साध्वी,श्रावक और श्राविका रूप संघ में वत्सलता अर्थात् प्रेम रखने वाला हो।। (८) सर्वसत्त्वहितान्वेपी-संसार के सभी प्राणियों का हित चाहने वाला और उसके लिए प्रयत्न करने वाला हो। (8)आदेय- जिसकी वात दूसरे लोग मानते हों। ( १० ) अनुवर्तक-विचित्र स्वभाव वाले प्राणियों को ज्ञान,
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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