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________________ पन्द्रहवाँ बोल संग्रह ८४६ सिद्धों के पन्द्रह भेद ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष में जाने वाले जीव सिद्ध कहलाते हैं। वे पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होते हैं (१) तीर्थसिद्ध-जिससे संसार समुद्र तिरा जाय वह तीर्थ कहलाता है अर्थात् जीवाजीचादि पदार्थों की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के वचन और उन वचनों को धारण करने वाला चतुर्विध संघ तथा प्रथम गणधर तीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार के तीर्थ की मौजूदगी में जो सिद्ध होते हैं वे तीथेसिद्ध कहलाते हैं। (२) अतीर्थसिद्ध-तीर्थकी उत्पत्ति होने से पहले अथवा वीच में तीर्थ का विच्छेद होने पर जो सिद्ध होते हैं वे भतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। मरुदेवी माता तीर्थ की उत्पत्ति होने से पहले हीमोक्ष गई थी। भगवान् सुविधिनाथ से लेकरभगवान् शान्तिनाथ तक आठ तीर्थङ्करों के बीच सात अन्तरों में तीर्थ का विच्छेद हो गया था। इस विच्छेद काल में जोजीव मोक्ष गये वे तीर्थ विच्छेद काल में मोक्ष जाने वाले अतीर्थ सिद्ध कहलाते हैं। नोट- तीर्थ विच्छेद होना एक अच्छेरा है । इस भवसर्पिणी में होने वाले दस अच्छेरों में यह दसवां अच्छेरा है। दस अच्छेरों का वर्णन तीसरे भाग के बोल नं०६८१ में दिया गया है। (३) तीर्थङ्करसिद्ध- तीर्थङ्करपद प्राप्त करके मोक्ष जाने वाले जीव तीर्थङ्कर सिद्ध कहलाते हैं। (४) अतीर्थङ्कर सिद्ध- सामान्य केवली होकर मोक्ष जाने वाले अतीर्थङ्कर सिद्ध कहलाते हैं। (५) स्वयंबुद्धसिद्ध- दूसरे के उपदेश के बिना स्वयमेव
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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