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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ^^^ MAAAA www ۴۴۶ ये तीन गुणस्थान ही रहते हैं। तीसरा, बारहवाँ और तेरहवाँ, ये तीन गुणस्थान अमर हैं। इनमें मृत्यु नहीं होती। पहले, दूसरे, तीसरे, पाँचवें और ग्यारहवें गुणस्थान को तीर्थङ्कर नहीं फरसते । चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और आठवॉ इन पाँच गुणस्थानों में ही तीर्थङ्कर गोत्र बँधता है। बारहवाँ, तेरहवाँ और चौदहवाँ ये तीन गुणस्थान अपडिवाई (अप्रतिपाती) हैं। पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ ये चार गुणस्थान अनाहारक भी होते हैं और चौदहवाँ गुणस्थान अनाहारक ही है । औदारिक आदि के पुद्गलों को न ग्रहण करने वाले को अनाहारक कहते हैं। पहला, दूसरा और चौथा गुणस्थान विग्रहगति की अपेक्षा से अनाहारक हैं। तेरहवाँ गुणस्थान केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समयों की अपेक्षा अनाहारक है। चौदहवें गुणस्थान में आहार के पुद्गलों का ग्रहण ही नहीं होता, इस लिए वह अनाहारक ही है । मोक्ष जाने से पहले जीव एक या अनेक भवों में नीचे लिखे नौ गुणस्थानों को अवश्य फरसता है - पहला, चौथा, सातवा, आठवाँ, नवा, दसवॉ, बारहवाँ तेरहवाँ और चौदहवाँ । ( कर्मग्रन्थ दूसरा और चौथा भाग ) (प्रवचनसारो द्वार द्वार ६० ) (आवश्यक चूर्णि ) ८४८ - देवलोक में उत्पन्न होने वाले जीव कौन से जीव किस देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं यह बात भगवती सूत्र के प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशे में बताई गई है । वहाँ चौदह प्रकार के जीवों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। वे इस प्रकार हैं ( १ ) संयमरहित भव्य द्रव्य देव जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयक देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं । - (२) अखण्डित संयम वाले (अविराधक साधु) जघन्य प्रथम देवलोक और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान तक उत्पन्न हो सकते हैं। (३) खण्डित संयम वाले (विराधक साधु) जघन्य भवनपति
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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