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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग की दृष्टि इतनी अस्थिर व चंचल बन जाती है कि जिससे वह अपने में ही वर्तमान परमात्मस्वरूप या ईश्वरत्व को नहीं देख सकता। ईश्वरत्व भीतर ही है किन्तु वह अत्यन्त सूक्ष्म है इस लिए स्थिर व निर्मलदृष्टि के द्वारा ही उसका दर्शन किया जा सकता है। चौथा गुणस्थान परमात्मभाव या ईश्वरत्व के दर्शन का द्वार है, वहाँ पहुँचने पर जीव अन्तरात्मा हो जाता है, अर्थात् बाह्य वस्तुओं की ओर से हट कर आत्मचिन्तन ही उसका मुख्य कार्य हो जाता है । आत्मविकास के लिए सभी वस्तुओं को यहाँ तक कि तीन लोक की विभूतियों को छोड़ने के लिए तैयार रहता है । पहले तीन गुणस्थानों में जीव वहिरात्मा होता है अर्थात् उस समय वस्तुओं की ओर विशेष झुकाव रहता है । चौथे गुणस्थान में दर्शन मोह का वेग कम होने पर भी चारित्र शक्ति को रोकने वाले संस्कारों का वेग रहता है अर्थात् उस समय अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है, इस लिए जीव किसी प्रकार का त्याग या नियम नहीं कर सकता । पाँचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम हो जाता है इस से जीव की चारित्र शक्ति कुछ कुछ प्रकट होती है और वह इन्द्रियजय और नियम आदि को थोड़े बहुत रूप में करता है | श्रावक के वारह व्रत तक अङ्गीकार करता है। इसी को देशविरत चारित्र कहते हैं। छठे गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कपाय भी मन्द हो जाता है, उसमें आत्मा वाह्य भोगों से हट कर पूरा त्यागी वन जाता है। छठे गुणस्थान में संज्वलन कषाय के विद्यमान रहने से कभी कभी क्रोध आदि आ जाते हैं किन्तु उनसे चारित्र का विकास नहीं दवता केवल उसमें थोड़ा सा मैल आ जाता है | चारित्र की शुद्धि और स्थिरता में कुछ फरक पड़ जाता है। जिस प्रकार वायु के सामान्य झकोरे से दीपक की शिखा कम ज्यादह होती रहती है ७१ www
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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