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________________ ... ANANA . . श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला mma wommmmmmmmmmmmm विकास इस लिए नहीं होता कि उन में उन शक्तियों के प्रतिवन्धक दर्शनमोह और चारित्रमोह की अधिकता है। चौथे गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में प्रतिबन्धक संस्कार मन्द हो जाते हैं इस लिए उन गुणस्थानों में शक्तियों का विकास आरम्भ हो जाता है। इन प्रतिबन्धक (कषाय) संस्कारों के स्थूल दृष्टि से चार विभाग किए गए हैं। ये विभाग कषाय के संस्कारों की विपाक शक्ति के तरतमभाव (न्यूनाधिक) पर आश्रित हैं। उनमें से पहला विभाग जो दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है, उसे दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी कहते हैं। शेष तीन विभाग चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। उन को यथाक्रम अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहते हैं। प्रथम विभाग की तीव्रतान्यूनाधिक परिमाण में प्रथम दोगुणस्थानों (भूमिकाओं) तक रहती है। इसीलिए पहले दो गुणस्थानों में तथा तीसरे में मिथ्यात्व का उदय होने से दर्शन शक्ति के आवि र्भाव का सम्भव नहीं है। कषाय के उक्त प्रथम भाग की अल्पता, मन्दता या अभाव होते ही दर्शन शक्ति व्यक्त होती है । इसी समय आत्मा की दृष्टि खुल जाती है। दृष्टि के इस उन्मेष को विवेकख्याति, भेदज्ञान, प्रकृति पुरुषान्यता, साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान आदि नामों से कहा जाता है। इसी शुद्ध दृष्टि से आत्मा जड़ चेतन का भेद असंदिग्ध रूप से जान लेता है। यह उसके विकासक्रम की चौथी भूमिका है। इसी भूमिका से वह अन्तदृष्टि बन जाता है और अपने वास्तविक परमात्मस्वरूप को देखने लगता है। पहले के तीन गुणस्थानों में दर्शनमोह और अनन्तानुवन्धी कषाय की प्रबलता के कारण प्रात्मा अपने परमात्मभाव को नहीं देख सकता। उस समय वह बहिदृष्टि होता है । दर्शन मोह आदि के वेग के कारण उस समय उस
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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