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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल समह चौथा भाग ७७५ गणधर ग्यारह लोकोत्तर ज्ञान दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारण करने वाले तथा प्रवचन को पहले पहल सूत्र रूप में गूंथने वाले महापुरुष गणधर कहलाते हैं। वे प्रत्येक तीर्थङ्कर के प्रधान शिष्य तथा अपने अपने गण के नायक होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थकरों के गणधर इस प्रकार थे (१) भ० ऋषभदेव - ८४ (२) भ० (३), संभवनाथ - (५) „ सुमतिनाथ - (७), सुपार्श्वनाथ - (2), सुविधिनाथ - ८८ १०२ १०० (१७), कुन्थुनाथ-(१६), मल्लिनाथ(२१), नमिनाथ(२३),, पार्श्वनाथ - ६५ (४) (६), (८) " (१०), " (११), श्रेयांसनाथ - ७६ (१२),, (१३), विमलनाथ- (१५), धर्मनाथ २३ ५७ (१४', ४३ (१६), अजितनाथ - ६५ अभिनन्दन - ११६ पद्मप्रभ १०७ चन्द्रप्रभ - ६३ शीतलनाथ - ८१ वासुपूज्य - ६६ अनन्तनाथ - शान्तिनाथ - ५० ३६ अरनाथ ११ ३५ (१८), २८ (२०), मुनिसुव्रत१७ (२२), नेमिनाथ-१० (२४), महावीरभगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे। दो गण ऐसे थे जिनमें दो दो गणधर सम्मिलित थे। भगवान महावीर के शिष्य होने से पहले म्यारहों गणधर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् थे । इन्द्रभूति, अभिभूति और वायुभूति ये तीनों भाई थे। अपने मत की पुष्टि के लिए शास्त्रार्थ करने के लिए भगवान् के पास आए थे। अपने अपने संशय का भगवान् से सन्तोषजनक उत्तर पाकर सभी उसके शिष्य हो गए। सभी के नाम और संशय और नीचे लिखे अनुसार हैं(१) इन्द्रभूति - जीव हैं या नहीं । ३३ १८ ११
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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