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________________ श्री सेठिया जैन प्रथमाना । साधु की तरह भिक्षावृत्ति से अपना जीवननिर्वाह करे किन्तु, इतना फर्क है कि उसका अपने सम्बन्धियों से सर्वथा राग चन्धन छूटता नहीं है इसलिए वह उन्हीं के घर मिक्षा लेने को जाता है। मिक्षा लेते समय एषणा समिति का भी पूर्ण ध्यान रखे । जो पदार्थ उसके जाने से पहले पक चुके हों और अग्नि पर से उतार कर शुद्ध स्थान में रखेहुए हों उन्हीं को ग्रहण करे।जोपदार्थउसके जाने के बाद पके उसे ग्रहण न करे । जैसे उसके जाने के पहले चावल पके है और दाल पकनेवाली है तो केवल चावलों को ग्रहण करे। दाले नहीं। यदि उसके जाने से पहले दाल पकी हो और चावल पकने वाले हों तो केवल दाल ले चावल नहीं। 'मिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय पडिमाधारी श्रावक को भिक्षा दो ऐसा कहना चाहिए। उस श्रावक की और साधु की मिक्षाचरी और पडिलेहणा तथा अन्य वाहरी क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं होता साधु सरीखा ही होता है। केवल शिखा धारण करता है। इसके लिए समवायांग सूत्र में पाठ आया है कि 'समर्ण भूए' (श्रमणभूत। अर्थात् साधु के तुल्य। अतः किसी के ऐसा पूछने पर कि 'आप कौन है उसे स्पष्ट उत्तर देना चाहिये कि मैं पडिमाधारी श्रावक हूँ, साधु नहीं। इस पडिमा की अवधि जघन्य एक दो या तीन दिन की है और उत्कृष्ट ग्यारह मास है । अर्थात् यदि ग्यारह महीने से पहले ही उस पडिमाघारी श्रावक की मृत्यु हो जाय या वह दीक्षित हो जाय तो जघन्य या मध्यम काल हा उसकी अवधि है और यदि दोनों में से कुछ भी न हुआ तो उपरोक्त सब नियमों के साथ ग्यारह महीने तक इस पडिमा का पालन किया जाता है। .सब पडिमाओं का समय मिलाकर साढ़े पांच (दशाभुतस्कन्ध दशा ६) (समवायाग समावाय ११)
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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