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________________ १६ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला को वापिस चूस लेता है) के समान न हो। किन्तु तू अपने चित्त को निश्चल कर और दृढ़तापूर्वक संयम का पालन कर । (६) हे रथनेमि ! ग्रामानुग्राम विहार करते हुए और गोचरी के लिये घर घर फिरते हुए तू जिन जिन सुन्दर स्त्रियों को देखेगा और फिर यदि उनमें विषय के भाव करेगा, तो वायू से प्रेरित हड़ नामक वृक्ष ( हड नाम का एक वृक्ष होता हैं जिसका मूल अर्थात् जड़ तो बहुत कमजोर तथा निर्बल होती है और ऊपर शाखाओं श्रादि का भार अधिक होता है अबद्धमूल होने के कारण वायु का थोड़ा सा झोंका लगते ही वह गिर पड़ता है) की तरह स्थिर आत्मा वाला हो जायगा । ( १० ) सती राजमती के उपरोक्त वचनों को सुनकर वह रथनेमि, जिस प्रकार अंकुश से हाथी वश में हो जाता है, उसी प्रकार धर्म में स्थिर हो गया ॥ १० ॥ (११) तच्च के जानने वाले प्रविचक्षण पंडितपुरुष उसी प्रकार भोगों से विरक्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि पुरुषोत्तम रथनेमि । 2 इस गाथा में रथनेमि के लिये 'पुरुषोत्तम' विशेषण लगाया गया है । इससे यह प्रकट होता है कि जो पुरुष चाहे जैसी विकट और डिगाने वाली परिस्थिति के उपस्थित हो जाने पर भी संयम मार्ग से न डिगें वह तो सर्वोत्तम है ही किन्तु वह भी पुरुषोत्तम है जो परिस्थिति से हिलाये हिल जाने पर भी अर्थात् मन के चंचल हो जाने पर भी सोच समझ कर अपने श्राचरण रूप व्रत से नहीं डिगते और दूसरों के उपदेश द्वारा मन को वश में कर कुपथ से हट कर प्रायश्चित पूर्वक अपने व्रत में दृढ़ बन जाते हैं । यह भी शूरवीर पुरुषों का लक्षण है । वे भी शीघ्र ही अपना कल्याण कर लेते है ॥ ११ ॥ ( दशत्रैकालिक दूसरा अध्ययन ).
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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