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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग १५ लगी और बड़े जोर की वर्षा हुई जिससे सब साध्वियाँ तितर चितर हो गई। राजमती अकेली रह गई। वायु और वर्षा की घबराहट के कारण एक गुफा में प्रवेश किया। उसे निर्जन स्थान जान कर राजमती ने अपने भींगे हुए कपडों को उतार कर भूमि पर फैला दिया । उस गुफा में भगवान् अरिष्टनेमि के छोटे भाई श्री रथनेमि (रहनेमि ) पहले से ही समाधि लगा कर खड़े थे । बिजली की चमक में नम्र राजमती के शरीर पर रथनेमि की दृष्टि पड़ी। देखते ही रथनेमि का चित्त काम भोगों की ओर आकर्षित हो गया और राजमती से प्रार्थना करने लगे। इस पर विदुषी राजमती ने रथनेमि को समझाया कि देखो, अगन्धन जाति का सर्प एक तिर्यश्च होता हुआ भी अपने जातीय हठ से जाज्वल्यमान अग्नि में पड़ कर अपने प्राण देने के लिये तो तैयार हो जाता है परन्तु वह यह इच्छा नहीं करता कि मैं चमन किये हुए विप को फिर से अङ्गीकार कर लूं । हे मुनि ! विषयभोगों को विष के समान समझ तुम उनका त्याग कर चुके हो परन्तु खेद है कि चमन किये हुए उन कामभोगों को तुम वापिस अङ्गीकार करना चाहते हो । श्रव राजमती आक्षेपपूर्वक उपदेश करती हुई रथनेमि से कहती है de (७) हे अपयश के चाहने वाले ! ( रथनेमि !) अपने श्रसंयम रूप जीवन के लिये जो तू वमन को पुनः पीना चाहता है अर्थात् छोड़े हुए कामभोगों को फिर से अङ्गीकार करना चाहता है, इससे तो तेरी मृत्यु हो जाना ही अच्छा है । ( ८ ) अपने कुल की प्रधानता की ओर रथनेमि का ध्यान श्राक-. र्पित करती हुई राजमती कहती है कि - हे रथनेमि ! मैं उग्रसेन" राजा की पुत्री हूँ और तू समुद्रविजय राजा का पुत्र है । अतः गन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प (जो कि वमन किये हुए जहर
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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