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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग है। ऐसा न्याग करना धीर वीर पुरुषों का काम है। (४) सब प्राणियों पर समभाव रख कर विचरते हुए मुनि का मन यदि कदाचित संयम रूपी घर से बाहर निकल जाय तो मुनि को चाहिए कि 'वह स्त्री आदि मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ' इस प्रकार विचार कर उस स्त्री आदि पर से रागभाव को दूर हटा ले और अपने मन को संयम मार्ग में स्थिर करे। (५। गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! आतापना ले, सुकुमार भाव को छोड़, काम भोगों का अतिक्रमण कर । इनके त्यागने से निश्चय ही दुःख अतिक्रान्त हो जावंगे अर्थात् दुःखों का विनाश हो जायगा। द्वेष को छेदन कर, राग को दूर कर, ऐसा करने से संसार में तूं अवश्य ही सुखी हो जायगा। आतापना आदि तप को अङ्गीकार करना और सुकुमारता का त्याग करना काम को रोकने के लिये बाह्य कारण हैं । राग द्वेष को छोड़ना अन्तरङ्ग कारण है। इन दोनों निमित्त कारणों के सेवन से मनुष्य काम को जीत सकता है और सुखी हो सकता है। (६) अंगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प, कठिनता से सहन की जाने वाली और जिसमें से धुंये के गुब्बारे उठ रहे हैं, ऐसी (जिसे सहन करना दुष्कर है ऐसी धूम चिह्न वाली) जाज्वल्यमान प्रचण्ड अनि में गिर कर अपने प्राण -देने के लिये तो तय्यार हो जाते हैं परन्तु वमन किये हुए विष को वापिस पी लेने की इच्छा नहीं करते। आगे सातवीं और आठवीं गाथा.में राजमती और रहनेमि का दृष्टान्त देकर उपरोक्त विषय का कथन किया गया है । इसलिये उस कथा का पूर्वरूप यहाँ लिखा जाता है. सोरठ देश में 'द्वारिका' नाम की एक नगरी थी। विस्तार में वह चारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी थी। उस समय
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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