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________________ ४२१. श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग कारण माता मरुदेवी ने घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान, केवल दर्शन उपार्जन कर लिये। उसी समय आयु कर्म का भी अन्त श्रा चुका था । सव कर्मों का नाश करमातामरुदेवी मोक्ष पधार गई । भरत महाराज भगवान् को वन्दना नमस्कार कर समवसरण में बैठ गये। भगवान ने धर्मोपदेश फरमाया जिससे श्रोताओं को अपूर्व शान्ति मिली । भगवान् के उपदेश से चोध पाकर भरत महाराज के पुत्र अपमसेन ने पांच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों के साथ भगवान् के पास दीक्षा अङ्गीकार की। भरत महाराज की बहिन सती ब्राह्मी ने भी अनेक स्त्रियों के साथ संयम स्वीकार किया। समवसरण में बैठे हुए बहुत से श्रोताओं ने श्रावकवत लिये और बहुतों ने समकित धारण किया। उसी समय साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की। भगवान ने ऋषभसेन आदि चौरासी पुरुषों को 'उप्परणेइ वा विगमेह वा धुवेइ वा' इस त्रिपदी का उपदेश दिया। जिस प्रकार जल पर तैल की बूंद फैल जाती है और एक चीज के बोने से सैकड़ों, हजारों वीजों की प्राप्ति होती है उसी प्रकार त्रिपदी के उपदेश मात्र से उनका ज्ञान बहुत विस्तृत हो गया। उन्होंने अनुक्रम से चौदह पूर्व भौर द्वादशाङ्गी की रचना की। केवलज्ञान होने के पश्चात् भगवान् एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक जनपद में विचरते रहे और धर्मोपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवों का उद्धार करते रहे । भगवान ऋषभदेव के ऋषभसेन आदि ८४ गणधर,८४००० मुनि, ३००००० साध्वी, ३०५.०० श्रावक, ५५४००० श्राविकाएं, ४७५० चौदह पूर्वधर, १००० अवधिज्ञानी, २०००० केवलज्ञानी, ६०० वैक्रिय लब्धिधारी, १२६५० मनापर्यय ज्ञानी और १२६५० वादी थे। अपना निर्वाण काल समीप जान कर भगवान् दस हजार मुनियों के साथ अष्टापद पर्वत पर पधारे । वहाँ सब ने अनशन
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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